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________________ २२० उपदेशामृत मनुष्यभवका रहस्य नहीं जाना तो पशु समान है। भगवानसे पूछा कि मैं भव्य हूँ या अभव्य? उत्तर मिला कि भव्य हो। तुम क्यों बोले? हो चुका । वह तो भव्य ही है। यह कितनी सामग्री है? पशु कुछ सुनेगा? किसकी सब सत्ता है? वह तो उसकी ही है। बोलिये : “चंद्र भूमिको प्रकाशित करता १. मुमुक्षु-"चंद्र भूमिको प्रकाशित करता है, उसकी किरणोंकी कांतिके प्रभावसे समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, पर चंद्र किसी भी समय भूमिरूप नहीं होता, वैसे ही समस्त विश्वका प्रकाशक आत्मा कभी भी विश्वरूप नहीं होता, सदा सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है। जीव विश्वमें अभेदता मानता है यही भ्रांति है।" प्रभुश्री-यह कैसी बात की कि जमकर हिम हो जाये! किसीके पास ऐसी सामग्री है? पदार्थ मात्र जड़ और उसके भी असंख्यात भेद कहे हैं, पर वे भी जड़के ही है। लौकिक दृष्टिसे मानता है पर अलौकिक दृष्टिसे नहीं देखा । यहाँ मार्ग भूल गया है, इसका पता है? सरलता। वह हो तो मोक्ष आता है; ऐसा मार्ग है। काम हो जायेगा! देर कितनी है? बस तुम्हारी देर में देर है। १. मुमुक्षु-हमें कैसे तैयार होना चाहिये? प्रभुश्री-कृपालुदेवको हमने यह बात पूछी थी, तो उन्होंने कहा, 'अब क्या है?' थप्पड़ मारा! मैं तो शांत हो गया कि वाह! प्रभु वाह! बहुत आनंद आया। यह जीव सुना हुआ, पढ़ा हुआ सब भूल जाता है, पर वह तो सब आवरण । ज्ञान है वह तो आत्मा है, उसे भूलना नहीं चाहिये। शेष सब तो छोड़ना ही है। ये सब यहाँ बैठे हैं। उन्हें कहेंगे कि आत्माको छोड़कर आइये, तो छोड़ सकेंगे? नहीं छोड़ सकते । शेष सब तो आवरणके ताले हैं, और यदि चाबी हाथ आ जाय तो ताले खुलेंगे। व्यवहार में बड़े सेठकी पहचान हो तो अड़चन नहीं आती। वैसे ही सच्चा स्वामी करना है। १. मुमुक्षु-हमारा स्वामी तो बड़ा है। प्रभुश्री-*"धिंग धणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट? विमल०" यह बात कौन मानता है? मर्म न समझे तो तुंबीमें कंकर जैसा है, यह तो पातालका पानी; वह निकल जाय तो काम बन जाय । यही तो कर्त्तव्य है। ऐसा अवसर फिर कहाँ मिलेगा? “आजनो लहावो लीजिये रे काल कोणे दीठी छे ?" पगली पगली बातें हैं और कहेंगे कि इसमें क्या? पर ऐसा नहीं करना है। बात सच्ची है, रामका बाण वापस नहीं लौटता, वैसी। इधर उधर कुछ देखना नहीं है और घबराना नहीं है। संसारमें मृत्युसे बुरा कुछ है? पर उसे तो महोत्सव मान लिया! कितना पलट गया? आप चाहे जहाँ जाये, पर आत्मा हो तो क्या लेना है? नगरमें घूमने जायें तो यह लेंगे, वह लेंगे, पर यहाँ तो आत्मा। वह हो तो अन्यकी क्या आवश्यकता है? “जहां लगी आतमा तत्त्व चिन्यो नहीं, तहां लगी साधना सर्व झूठी।” (मुनि मानसागरजीको) कहिये मुनि, कैसी बात है? . ठीक है न? कुछ अन्य हो तो कहिये। मान०-ठीक है, बराबर है। प्रभुश्री- "जिहाँ लगे आतम द्रव्य- लक्षण नवि जाण्यु, तिहाँ लगे गुणठाणुं भलु केम आवे ताण्युं ?" * भावार्थ-समर्थ स्वामी सिरपर है फिर क्या चिंता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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