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________________ उपदेशसंग्रह-१ २१९ क्षमायाचना करें। किसीका दोष न देखें । सभी अच्छे हैं। हमें क्या करना है? आत्मभाव । * "मा चिट्ठह, माजंपह, मा चिंतह किं विजेण होइ थिरो, अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं." आत्मभावमें रहा तो यही कर्त्तव्य है और कामका है। ता. १३-१-३६, सबेरे आठवीं दृष्टिके विषयमें चर्चा १. मुमुक्षु-इस दृष्टिमें बोध और ध्यान अग्निके समान होते हैं। अपने कर्म तो जला ही दें, पर समस्त संसारके कर्म उसमें होम दिये जायें तो जलाकर भस्म कर डाले, ऐसा निर्मल और बलवान ध्यान होता है। यद्यपि ऐसा होता नहीं है, क्योंकि कोई किसीके कर्म लेता देता नहीं, सब अपने अपने कर्म स्वयं ही भोगते हैं। यहाँ तो अपने कर्म जलाकर केवलज्ञान होता है। प्रभुश्री-समाधिकी बात कुछ ऐसी वैसी है? पर जीवने इसे लौकिकमें निकाल दिया है। अजब गजब बात है! इस जीवने तो संसारका ही माहात्म्य जाना है। यह तो सब आवरण है। वह बीचमें आया है। उन सबसे मुक्त एक चैतन्य, आत्मा! भारी बात की है। १. मुमुक्षु-इस आठवीं दृष्टिवालेकी तो बात ही अलग है और परिणामकी गति ही भिन्न है! इस दृष्टिकी बात हमसे तो नहीं हो सकती। वह तो अनुभवी ही जानता है। २. मुमुक्षु-अनंतकालसे अनंत जीव मोहमें परिभ्रमण करते हैं; जिसे वे हटा नहीं सके उसे यहाँ क्षीण कर दिया है। प्रभुश्री–'बात है माननेकी ।' सत्को मानें। उसे माननेसे कुछ बदलाव आता है और काम होता है। २. मुमुक्षु-आठ कर्ममें मोहनीयकर्म बलवान है, वह कर्मपुद्गल ग्रहण कर आठोंको बाँट देता है। वही बंध करता है और कर्म बंधन कराता है। अन्य किसीमें ऐसा बल नहीं है। मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । जहाँ विपरीत मान्यता होती है वह दर्शनमोह । सत्पुरुषकी संगतिसे वह मान्यता बदल जाय तो सब कुछ बदल जाता है। १. मुमुक्षु-यथार्थ मान्यता हो वहाँ समकित होता है। और वह प्राप्त हुआ तो केवलज्ञानको आना ही पड़ता है। सत्पुरुषके योगसे वस्तुको वस्तुस्वरूप माने तो काम बन गया। प्रभुश्री-देखिये, इस पूरे शरीरमें वायु है और दुःख है। यह जाना। यह सब वृद्धावस्थाकी बात है। क्या जड़ इन बातोंको सुनेगा? वह तो वही । क्या उसे मान्य नहीं करना चाहिये? इतनासा करनेका काम सो नहीं किया। जितने ज्ञानी हो गये हैं, उन्होंने यह किया है। पहचानना है और मानना है। व्यवहारमें भी कहते हैं कि इतना सा मान ले भाई! तो सब अच्छा होगा। तब कहता है कि बहुत अच्छा, मानूँगा। वैसे ही इसे भी मानना है। ‘बात है माननेकी' । इसमें गहन रहस्य है। * हे विवेकी जनों! कायासे कुछ भी चेष्टा न करो, वचनसे कुछ भी उच्चारण न करो, मनसे कुछ भी चिंतन न करो, जिससे तीनों योग स्थिर हों। आत्मा आत्मस्वरूपमें स्थिर हो, रमण करे वही निश्चयसे परम उत्कृष्ट ध्यान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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