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________________ २१८ उपदेशामृत "जिन्हें दूसरी कोई सामर्थ्य नहीं, ऐसे अबुध एवं अशक्त मनुष्योंने भी उस आश्रयके बलसे परम सुखहेतु अद्भुत फलको प्राप्त किया है, प्राप्त करते हैं और प्राप्त करेंगे । इसलिये निश्चय और आश्रय ही कर्तव्य है, अधीरतासे खेद कर्तव्य नहीं है।" ऐसे भगवानके गुणगान करनेसे, भक्तिभावनासे, ऐसे लोग भी सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं और क्रमशः मुक्त होते हैं। अन्य बातें छोड़ दें; उस घाटसे पार नहीं उतरेगा। संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। किसी पुण्यसे मनुष्यभव प्राप्त हुआ है, तो सुन रहे हैं। पशु यह नहीं कर सकता। अतः इस भवमें जैसे भी हो सके कर लेना चाहिये । 'लिया सो लाभ' १“आजनो लहावो लीजिये रे, काल कोणे दीठी छे ?' 'समयं गोयम मा पमाए' एक यही शरण, भावना आत्मभावकी की तो केवलज्ञान प्रकट हो जायेगा। प्रमादको छोड़कर अब लक्ष्यमें लेना न भूले । प्रारब्ध विघ्नकर्ता है-खाना, पीना, बोलना, चलना आदि-ये तो आठ कर्म हैं उन्हें आत्मा मत समझ । उनसे छूटनेकी भावना करे तो बंधनसे मुक्ति होती है। 'शरीर छूट जायेगा,' 'मैं मर जाऊँगा' ऐसा भय लगता है, पर अनंतबार देह छूटने पर भी जन्म-मरणसे नहीं छूटा। वह कैसे छूटे? समकितसे। पहले इसे प्राप्त किया तो अच्छी गति मिली। फिर नरक तिर्यंचमें जाना न पड़े, यह कोई साधारण कमाई नहीं है। अतः गफलतमें मत रह । 'मेरा मेरा' करके मर रहा है। गुरु-चेला, हाट-हवेली, धन-दौलत, बाल-बच्चे ये तेरे नहीं है, सबको छोड़ना पड़ेगा। अतः 'मेरा, मेरा' कर रहा है उसका त्याग कर। तेरा तो आत्मा। वह तो ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है। उसीकी भावना कर। भगवानने कहा है कि जब तक साता है, दुःख-व्याधि-वेदना नहीं है और सुख है तब तक धर्म कर ले, फिर नहीं कर पायेगा। बाजी हाथमेंसे निकल गयी तो फिर कुछ नहीं हो सकेगा। जब तक मनुष्यभव और साता है तब तक कर ले। सब चित्रविचित्र है। वेदना होती है, दुःख-व्याधि होती है। अतः यह मनुष्यभव प्राप्त कर आत्माके संबंधमें कुछ बात सुन, कान लगा; अन्य बातें तो बहुत हुई हैं, पर आत्माके संबंधमें नहीं हुई, वह कर । महापुरुषोंने यह उपाय बताया वह अमृतके समान है। 'मेरा मेरा' करनेसे अपना नहीं होगा, यथातथ्य एक ही बात माननी है। माने तो काम बन जाये । मेरा-तेरा, अच्छाबुरा, वाद-विवाद कुछ भी नहीं। भाव निर्मल कर। अन्यभाव मत आने दे। 'पवनसे भटकी कोयल', 'पंखीका मेला' यों चला जायेगा, देर नहीं लगेगी। बीता हुआ अवसर हाथ नहीं आयेगा। यही कर्तव्य है। __ अब वृद्धावस्था हुई। ८२-८३ वर्ष हो गये। शरीरके साँधे दुःखते हैं, सुना नहीं जाता, वेदना सहन नहीं होती, बड़ी कठिनाईसे यहाँ तक आ पाते हैं। जब तक चलता है, तब तक चलाते हैं, दिन बिताने हैं। बात करनी है समभावकी! वहाँ राग-द्वेष नहीं आते। संसारकी ओर दृष्टि नहीं करनी है। उसे देखनेसे पार नहीं पड़ेगा। जहाँ संकल्प-विकल्प हैं वहाँ दुःख है, उससे बंधन होता है। मुमुक्षु- "ऊपजे मोहविकल्पथी, समस्त आ संसार; ____अंतर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार." प्रभुश्री-इसके इच्छुक बनें, इसे ही देखें। आत्मा न हो तो मुर्दा है। जो जानता है उसका उपयोग, विचार हो तो भावना हुई। जैसे भाव होंगे वैसा फल मिलेगा। कुछ नहीं है। सबसे १. आजका लाभ ले लीजिये, कल क्या होगा? उसका कुछ पता नहीं है। wwww.jaineliufary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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