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________________ उपदेशसंग्रह - १ २१७ उसका फल है । भगवानका वचन है कि जो करेगा वह भोगेगा, अन्य कोई नहीं भोगेगा - पिता करेगा तो पिता भोगेगा, पुत्र करेगा तो पुत्र भोगेगा, अन्य नहीं भोगेगा। सभी बाँधकर आये हैं, वह भोग रहे हैं। अपने लिये करना है । कोई कुछ भी बोले, उसका हर्षशोक न करें। भले ही पार्श्वनाथ कहें, ऋषभदेव कहें, शांतिनाथ कहें, यह तो नाम मात्र है, पर हैं तो सब आत्मा । उसने किया उसको फल, हमने किया हमें फल । करेगा सो भोगेगा, यह तो अपने हाथमें है । वीतराग मार्ग अपूर्व है । करेगा सो पायेगा । किसीको कहने जैसा नहीं है । सबको चेतने जैसा है अतः चेत जाइये। समझकर शांत हो जाइये । समझनेका लक्ष्य रखें । * ता. १२-१-३६, शामको पत्रांक ८४३ का वाचन “श्रीमान् वीतराग भगवानोंने जिसका अर्थ निश्चित किया है, ऐसा, अचिंत्य चिंतामणिस्वरूप, परम हितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखोंका निःसंशय आत्यंतिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवंत रहे, त्रिकाल जयवंत रहे ।” I अलौकिक वाणी है, लौकिक नहीं । जीवने वीतराग मार्गका माहात्म्य लौकिकमें निकाल दिया है । भव्य जीवको महिमा समझकर धारण करना चाहिये । समकितकी गिनती है । जब तक मिथ्यात्व है, तब तक जीवको अज्ञान है। आत्मज्ञानियोंने जाना है आत्माको । अन्य कोई स्थान अच्छा नहीं है । अब वृद्धावस्था हो गई है । चारों ओर दुःख और वेदनी है । अन्य उसमें परिणत हो जाते हैं। पर इसे दुःख है ? वेदनी है ? जैसा है वैसा है। ज्ञानीने जाना है । अन्य सब साधन संसारमें बंधनरूप है। उससे छूटनेके लिये ज्ञानीकी दृष्टिसे आत्मस्वभाव, आत्माका विचार करें । ये सब यहाँ बैठे हैं, सबको भाव और उपयोग है । परभावमें प्रवृत्ति करनेसे बंधन होता है । स्वभाव है। वह आत्मा है, उसके उपयोगसे पुण्य बंध होता है तथा निर्जरा होती है। उसमें लूटमलूट करना है । अच्छा, बुरा, बनिया, ब्राह्मण, पाटीदार, स्त्री-पुरुष यह नहीं देखना है, सब आत्मा हैं । अब तो यहाँसे छूटना है। संबंध और संयोग है । वह आत्मा नहीं है । आत्माको परभावसे छुड़वाना है । वह कैसे हो ? जैसे भी हो सके प्रतिबंध कम करें। सबके साथ चार भावनासे प्रवृत्ति करें - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना । जीव सज्झायमें, ज्ञानध्यानमें, धर्मध्यान, चर्चा, वाचन, चिंतनमें रहे तो उत्तम है । इस कालमें सबसे श्रेष्ठमें श्रेष्ठ सत्संग है । वहाँ धर्मकी बात होती है । अन्य कथावार्ता करें तो पाप लगता है । सत्संगमें आत्माकी बात है और वहीं उपयोग जाता है । वही कर्तव्य है । सत्पुरुष कहते हैं कि गुणगान तो ज्ञानीका, वीतराग मार्गका करना चाहिये । अन्य चार कथा - स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, देशकथा - से बंधन होता है । आत्मधर्मकी बात, ज्ञान, ध्यान, वैराग्यकी बातें जीवको हितकारी हैं और उनसे पुण्यबंध होता है । “उन श्रीमान अनंत चतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवंत धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है । " देखिये, अन्य बात नहीं आयी। इस मायाके स्वरूपसे बंधन होता है । अतः सावधान रहें । अनमोल क्षण बीत रही है । मनुष्यभव दुर्लभ है । प्राण लिये या ले लेगा यों हो रहा है । वेदनीय और अशाता आ गई तो फिर कुछ नहीं होगा, यह जीव जाननेवाला है । अतः पहचान कर लें । पहचानसे ही छुटकारा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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