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________________ २१६ उपदेशामृत प्रभुश्री-इन्होंने बता दिया. : 'मिथ्यात्व' । अब इसका प्रतिपक्षी कौन है और क्या है? [जिनचंद्रजीसे पूछा, वहाँ बीचमें ही] मुमुक्षु-प्रतिपक्षी समकित है। प्रभुश्री-इनको कहने दो । बीचमें होशियारी क्यों दिखाते हो? अनंतकालसे समकित प्राप्त हुआ होगा या नहीं? जिन-भव्यको कभी हुआ होगा। सन्मुखता दिखायी दे तब विश्वासरूपमें आया होगा। मोक्षकी इच्छा हो तब अनुमान होता है कि आया होगा। प्रभुश्री-सज्झायमें आता है कि, 'समकित नवि लयुं रे, ए तो रूल्यो चतुर्गतिमांही।' इसमें समकितका इन्कार क्यों किया गया है? जिन०-इस गाथाके शब्द सामुदायिक है। समकित प्राप्त किया हुआ भी अर्धपुद्गल परावर्तन तक भटक सकता है, इसमें कुछ एकांत नहीं है; जैसे श्रेणिक राजा। प्रभुश्री-इस जीवका बुरा करनेवाले राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। वीतराग मार्ग सम है। हमें तो सत्यके इच्छुक होना चाहिये। जीव और भावकी बात है। समकित असंख्यात बार आता है और जाता है; पर जब यथातथ्य आता है तब मोक्ष होता है, उसके बिना नहीं होता। अभव्यकी बात नहीं है, भव्यकी है। और समकित आया तो मोक्ष ले जायेगा। यह तो बड़ी बात है। यह जीव क्रिया करता है, उसका फल मिलता है; जिससे नव ग्रैवेयक तथा बारहवें देवलोक तक जाता है, यह भी जीवको ही होता है, और मोक्ष भी जीवको ही होता है। इस जीवका बुरा संकल्प-विकल्पसे और परभावसे होता है। स्वभावमें रहे तो ऐसा नहीं होता । ज्ञानी कहते हैं कि यदि इस भवमें आत्मभावमें रहे तो अनेक कर्म क्षय हो जाते हैं। जीवमात्रको सब बंधन कर्मके हैं। जितना छोड़ा जा सके उतना श्रेष्ठ, वह कर्तव्य है। अच्छे-बुरेका तो फल है; पर बंधनसे मुक्त होनेके सब उपाय करें। अन्य भव खड़े हो जायें ऐसा न करें। समाधि प्राप्त होती हो, बंधन रहित होता हो वह करें। हम छूटनेके लिये बैठे हैं, अतः बंधन हो वैसा न करें। जगत तो ऐसा कहता है कि यह अच्छा है, यह बुरा है । उस ओर कुछ नहीं देखना है। अच्छा-बुरा कहनेसे कुछ वैसा होता नहीं। किंतु अपने भावका फल है। जो यहाँ बैठे हैं वे सब आत्मा हैं। उन्हें संकल्प-विकल्प तो होता है। कुछ तो ध्यान, वैराग्य, निवृत्ति आदिमें होते हैं और कुछ विकारमें होते हैं। अच्छा-बुरा कहलाये जानेका फल नहीं हैं, किन्तु अपने भावका फल है। अन्यके कहनेसे कुछ नहीं होता, स्वयं कुछ करे तो होता है। आप कल्पना न करें। मर! अच्छा कहे, बुरा कहे, उसकी आपको आवश्यकता नहीं है। हमें तो आत्माका, ज्ञान-दर्शन-चारित्रका काम है। जैसे शुभ-अशुभ भाव होते हैं वैसे ही शुद्ध भाव भी होता है। अतः अपने भावका विचार करें। अपने भावका ही फल है। मुमुक्षु-यह संसार स्वार्थमय है। यदि जीव जगतकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करे तो उसे मान देकर हाथीपर बिठा दे और यदि उसके विरुद्ध प्रवृत्ति करे और उसके स्वार्थकी पूर्ति न हो तो गधे पर बिठा दे। अतः श्रेष्ठ पुरुष जगतकी चिंता नहीं करते। प्रभुश्री-जिसने जैसा किया, वैसा हुआ। जिस दिशामें देखा वह दिशा दिखायी दी। अतः करे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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