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उपदेशसंग्रह-१
२१५ मान०-शुद्ध दृष्टि नहीं आई। वह आनेका कारण तो होना चाहिये; यह महाराजसे (प्रभुश्रीसे) पूछिये।
[प्रभुश्रीको कम सुनाई देता था अतः यह बात सुनाई नहीं दी।] प्रभुश्री-साधुजीको यों पूछिये कि अनंतबार साधुता आई है और व्रत-प्रत्याख्यान किये हैं, तब फिर क्या रह गया?
मान०-द्रव्यसे तो साधुता अनंतबार आ चुकी है। प्रभुश्री-जीवको शेष क्या रहा?
मान०-पौद्गलिक सुखके लिये साधुताको अंगीकार किया कि सुख-साता मिलेगी, मान-कीर्ति मिलेगी। ऐसे भावके बदले शुद्ध साधुत्व आवे और बाह्यभावमें तल्लीन न हो तो कल्याण होता है। अभव्यको समकित नहीं होता, फिर भी वह साधुत्व लेता है और ऐसी उत्कृष्ट क्रिया करता है कि नौवें ग्रैवेयक तक चला जाता है; किन्तु वह सब अन्यको प्रसन्न करनेके लिये है; अपने आत्माके लिये कुछ नहीं किया। उसने आत्माके स्वरूपको पहचाना नहीं है। प्रभुश्री- "जिहाँ लगे आतमद्रव्यनुं लक्षण नवि जाण्युं;
तिहाँ लगे गुणठाणुं भलुं किम आवे ताण्युं ?" मुमुक्षु-भूल जो होती है वह आत्मतत्त्व जाननेमें ही होती है। सब दर्शन आत्माकी भिन्न भिन्न कल्पना करते हैं। जैसे कि क्षणिकवादी, शून्यतावादी, क्रियावादी, जड़वादी आदि ।
प्रभुश्री-जो मोक्ष गये वे तो आत्माको जानकर गये। वे किस प्रकार गये? और क्या किया? इस जीवने अनंतवार साधुता, जप, तप, क्रिया आदि किये। “वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो।" इतना किया, तो अब कमी क्या रही?
मान०-आत्माको पहचाना नहीं। प्रभुश्री-आत्माकी पहचान कैसे हो? मान-पहचाननेके लिये तो दीक्षा ली है और प्रयत्न चालू है। प्रभुश्री-तो अब कुछ कमी रहती है? मुमुक्षु-(जिनचंद्रजीसे) आपको कुछ कहना है? जिन०-मुझे तो सुननेकी इच्छा रहती है।
प्रभुश्री-यह तो ठीक है, पर कुछ सुना हो तो कहना चाहिये । जैसा हो वैसा कहें, इसमें क्या हर्ज है ? बात तो करनी चाहिये।
__ जिन-ऐसा लगता है कि इस जीवको मुख्य आठ आत्मा हैं, दूसरी ओर अठारह पापस्थानक हैं। पापस्थानकमें जब तक मिथ्यादर्शनशल्यकी प्रकृति उदयमें रहती है तब तक प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध होता है और वह आत्माके साथ जुड़ी हुई है। मिथ्यात्वको उपशांत या क्षय कर यदि आत्माको पहचाननेका प्रयत्न किया जाय तो काम बन जाता है।
__ + जब तक आत्मद्रव्यका लक्षण नहीं जाना अर्थात् आत्माकी पहचान नहीं हुई तब तक समकितकी भूमिकावाला गुणस्थानक जबरजस्तीसे कैसे आयेगा?
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