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उपदेशामृत २. मुमुक्षु-अबंधताका हेतु अविषमभाव है। अतः यहाँ भी 'अ' निकाल दें। (मुमुक्षुसे) 'अ' निकाल देनेसे तो यहाँ उलटा अनर्थ हो गया, अर्थात् विषमभाव हुआ।
१. मुमुक्षु-सब जगह 'अ' नहीं निकाला जा सकता। कहीं निकाला जा सकता है, कहीं नहीं, ऐसा व्याकरणका नियम है।
प्रभुश्री-गप्प न मारो। कुछ आश्चर्य है? तुलना नहीं हुई। ज्ञानी कर्म नहीं बाँधते वह क्या है? १. मुमुक्षु-वहाँ दृष्टि बदलती है। जैसा आप कहते हैं कि,
"होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह;
मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत ओह." प्रभुश्री-अब इसे ही समझिये, दृष्टिकी भूल क्या है? ।
१. मुमुक्षु-एक कहता है कि मेरा है' और दूसरा कहता है कि 'मेरा नहीं किंतु जा रहा है।' इन दोनोंमें कितना अधिक अंतर है? - प्रभुश्री-यही तो कहा न ? तब फिर जहाँ बंधन नहीं वहाँ क्या है?
१. मुमुक्षु-वहाँ शुद्ध आत्मा है, संसार नहीं है। ज्ञानी वहाँ ज्ञानरूपसे ही हैं। बाकी हमें तो कुछ पता नहीं चलता।
२. मुमुक्षु-जब तक कूड़ा है, तब तक उपाधि है और रहेगी। उसे निकालना पड़ेगा। फिर कुछ करनेका नहीं रहता। परभावमें जो अपनत्व हुआ है उसे छोड़ना पड़ेगा। संसाररूपी महलकी नींव परको अपना मानना है और मोक्षमहलकी नींव, स्वको अपना मानना है।
१. मुमुक्षु-प्रभु, अब तो आप कहिये कि क्या शेष रह जाता है?
प्रभुश्री-कुछ तो रहता ही है। 'त्याग करके आ, स्वच्छ बनकर आ' ऐसा कहा तो वह उलटा लेकर आता है। तब क्या हो सकता है? इतना ही छोड़नेसे छुटकारा है। छोड़ना पड़ेगा। वहाँ फिर अन्य क्या कहा जाय? देवकरणजी मुनिको कृपालुदेवने कहा कि देखो, यह आत्मा । तो बीचमें तुरत मैं बोल पड़ा कि कहाँ है प्रभु? फिर कृपालुदेव मेरे सामने देखते ही रहे, कुछ न बोले । फिर मुझे पश्चात्ताप हुआ। फिर बोधमें बताया कि मुनि, तुम आत्मा देखोगे, तब शांति हुई। यह तो उन्हींके संकेतसे समझमें आ सकता है। प्रज्ञावानको समझमें आता है और कहा जाता है। प्रज्ञारहितको क्या कहा जाय?
ता. ११-१-३६,शामको पत्रांक ३२१ का वाचन
"अत्यंत उदास परिणाममें रहे हुए चैतन्यको ज्ञानी प्रवृत्तिमें होने पर भी वैसा ही रखते हैं।" १. मुमुक्षु-ज्ञानी सर्व अवस्थामें अबंध परिणामी है, वह कैसे?
प्रभुश्री-ज्ञानी ज्ञानमें रहते हैं। अन्य अवस्थामें हों तो भी बंध नहीं होता। शुभ अशुभसे बंध तो होता है परंतु उसमेंसे ज्ञानीको एक भी नहीं हैं। अतः उनको ऐसा क्या आ गया और ऐसा क्या है?
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