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उपदेशसंग्रह - १
२१३
१. मुमुक्षु - वैद्य विष खा ले तो भी नहीं मरता, अन्य कोई खा ले तो मर जाता है । वैसे ही ज्ञानी प्रवृत्ति होने पर भी प्रवृत्तिका जो उपाय निवृत्ति है, उसे वे बराबर जानते हैं; और प्रवृत्ति भी कर्मजनित है, कर्म हैं ऐसी दृढ़ मान्यता है जिससे उन्हें कर्तृत्व नहीं है, अहं - ममत्व नहीं है । इसलिये कर्म चिपकते नहीं, क्योंकि उन्हें रागद्वेष नहीं हैं ।
२. मुमुक्षु - ज्ञानी ज्ञानी कहलाते हैं । उन्होंने आत्माको जाना है । अतः आत्माको जाननेसे उपयोगमें रह सकते हैं; परभावके स्वामी नहीं है; इसलिए बंध नहीं है । अतः ज्ञानीकी गति तो ज्ञानी ही जानें। उसका वर्णन शब्दोंमें नहीं हो सकता ।
३. मुमुक्षु - अनुभवी पुरुषकी मान्यता दृढ़तापूर्वक बदल गई, अतः वे अन्य कुछ नहीं मानते । २. मुमुक्षु सम्यक्त्व आत्माको बंध नहीं होने देता । बंध- मोक्ष परिणाम और भावसे होता है । जो परिणाम बदलकर सुलटे हो गये हैं वे अबंधके कारण हैं ।
१. मुमुक्षु - ज्ञानी अपने स्वरूपमें रहते हैं इसलिये मोक्षस्वरूप है, वहाँ बंध नहीं है । जहाँ स्वस्वरूपसे विमुखता है, वहाँ बंध है ।
२. मुमुक्षु – सम्यक्त्वकी अपेक्षासे बंध नहीं है । शेष मोहपरिणामकी अपेक्षासे बंध है। अंत तककी दशा प्राप्त होनेपर फिर बंध नहीं है, अबंध परिणाम है । भाव पर ही परिणामकी धारा है । प्रभुश्री- भाव तो मुख्य कारण है - जैसा भाव वैसा बंधन । बंधन रागद्वेषसे होता है । हास्य, रति - अरति, नींद- आलस्य ये सब कर्म और बंधन । इसीका नाम पुद्गल रखा गया, उसके पर्याय, परिणामको ग्रहण करना बंध है । ज्ञानीका ऐसा क्या बल है कि वे ग्रहण नहीं करते ? क्योंकि वे असंग रहे हैं । अन्य सब कुछ भले ही हो पर मेरा नहीं । मेरा तो एक आत्मा है । वह जाननेवाला है । सब भेदवाला उसे दिखाई देता है, उसे भी जाननेवाला हुआ । कितना माहात्म्य है ? यह हुए बिना पता नहीं लगता। बातें बघारनेसे काम नहीं होता ।
२. मुमुक्षु - "शास्त्र घणां मति थोडली, मनमोहन मेरे; शिष्ट कहे ते प्रमाण रे, मनमोहन मेरे. " अतः इसमें बुद्धि नहीं पहुँचती ।
प्रभुश्री - यह बात विचारणीय है, करने योग्य है । सब ओरसे मुड़ना पड़ेगा । मुड़नेसे ही छुटकारा है ।
“अत्यंत उदास परिणाममें रहे हुए चैतन्यको ज्ञानी प्रवृत्तिमें होनेपर भी वैसा ही रखते हैं।" प्रभुश्री - उन्होंने कर्मको जाना, उससे भिन्न असंग स्वरूप रहकर भेद रखा। बात तो भेदज्ञानकी है ।
१. मुमुक्षु-ज्ञानी आत्मामें रहते हैं, मायाको तो एक क्षणमात्रके लिये भी हृदयमें घुसने नहीं देते । मायाका बल भी बहुत है और वह ऐसी है कि उसका महत्व लगे तो समकित भी चला जाय ।
२. मुमुक्षु - उदास - परिणाम अबंधताका कारण है ।
प्रभुश्री- बात तो की पर उसमें, अन्यमें यदि भाव न हो तो बंध नहीं होता, किन्तु अंतरमें भाव हो तो बंध होता है ।
१. शास्त्र अनेक है और मति अल्प है, अतः शिष्ट (ज्ञानी) पुरुष जो कहे उसे प्रमाण (मान्य) करना चाहिये ।
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