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________________ उपदेशामृत सबका सार विनय, विनय वैरीको भी वशमें करता है। बेटा बनकर खा सकता है, बाप बनकर नहीं खा सकता । आत्मार्थी विनय और लघुताकी बात करता है । विनयको पहले घरमें लायेगा तो काम बनेगा । बड़े करोडपतिमें भी विनय हो तो हम उसके दास हैं। 'लघुता तो मेरे मन मानी' (चिदानंदजी)। मान न हो तो यहीं मोक्ष है । वह छूटा तो काम बना । समाधिमें खड़े बाहुबलिजीको उनकी बहनों - ब्राह्मी - सुंदरी ने जंगलमें जाकर कहा - "वीरा, गजथकी हेठा ऊतरो।' तब बाहुबलिजी सोचमें पड़ गये और जागृत हुए कि सही बात है, मैं अहंकाररूपी गजपर बैठा हूँ। अब तो मैं छोटे भाइयोंको नमस्कार करने जाऊँ - ऐसा सोचकर पैर उठाया कि तुरत केवलज्ञान हो गया। मात्र इतने ही मानके अहंकारसे केवलज्ञान रुका हुआ था । मान-अहंकारने इस जीवका बुरा किया है। उसे छोड़नेसे ही मुक्ति है । २०४ ता. ९-१-३६, सबेरे मोक्षका अनंत सुख मुनि वीतराग ही भोगते हैं और इसे समकिती जानते हैं । मुनियोंने सभी उपसर्ग सहन किये और समभावके महासुखमें स्थित हुए । क्योंकि अन्य कुछ मेरा नहीं, 'मैं' और 'मेरा' निकल गया । ऐसी वस्तुको किसी विरलेने ही जाना । किसने दिखाई ? कौन दिखा सकता है ? उसे तो भेदी मिला है। बात जानकर पकड़ ली, अब उसे कुछ फेंक थोड़े ही देगा ? इस पर महापुरुषोंने स्तवनमें कहा है- “हुं मारुं हृदयेथी टाळ, परमारथमां पिंड ज गाळ ।” २ तथा इसको ( आत्माको ) बुलाया । कृपालुदेवने अहमदाबादके राजपर मंदिरमें हमें बुलाया, स्वयं भी सीधे वहाँ पहुँचे। हम तो प्रतीक्षामें ही बैठे थे। बातें करते जाते थे और बातोंमें ही बोध भी होता जाता था । फिर भूमिगृहमें गये और मुनि देवकरणजीको प्रतिमाकी ओर संकेतकर कहा, "देखो, यह आत्मा !” मैं भोला, बोल उठा, “कहाँ है बापजी ?" फिर मेरे सामने ही देखते रहे, कुछ हाँ या ना नहीं कहा । मैं तो घबराया कि इन्हें क्या कहना होगा ? मुझे विकल्प न रहे अतः बोधमें मुझे बताया कि “मुनि, तुम देखोगे ।" अतः जितनी उतावल उतनी कचास है। है अवश्य । चिंता क्यों करते हो ? "धिंग धणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट ? विमलजिन, दीठां लोयण आज." जमकर हिम हो गये। जानकार हो गये, भेदी हो गये। किसीने कहा है न३ " रंगरसिया रंगरस बन्यो, मनमोहनजी, कोई आगळ नवि कहेवाय, मनडुं मोह्युं रे मनमोहनजी, वेधकता वेधक लहे, मनमोहनजी, बीजा बेठा वा खाय, मनडुं मोह्यं रे मनमोहनजी. " १. भाई ! हाथी परसे नीचे उतरो । २. अहं और ममत्वको हृदयसे निकालकर परमार्थमें जीवन बिता । ३. भावार्थ - (प्रभुभक्ति में गाया गया है कि - ) हमें रंगमें रस आ गया है, हे आनंदरसिक जनो ! हमें आनंद आ गया है, मनमोहन प्रभुने हमारा मन मोह लिया है। किसीके आगे बात नहीं कही जा सकती । वेदन करनेवाला ही उस स्थितिका वेदन कर सकता है-लक्ष्यको बींध सकता है। दूसरे तो बैठे हवा खाते हैं (अर्थात् भक्तिवानके सिवाय दूसरेका यह काम नहीं है ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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