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________________ उपदेशसंग्रह - १ कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्षका उपाय है। भेदका भेद तो जानना पड़ेगा । १. मुमुक्षु-भेदका भेद कैसे समझमें आयेगा ? ४. मुमुक्षु – एक बालकके सिरपर दस मनका बोझा रखें तो वह दब ही जाता है, वैसे ही हमारी तो इतनी शक्ति नहीं है । " केई केई मर गया गोता ।' प्रभुश्री - यह तो ज्ञानी जानते हैं । १. मुमुक्षु - ज्ञानीने जाना, तो अब हम भी उनसे ही जानेंगे, तब तक उठेंगे नहीं, जानकर ही रहेंगे । I प्रभुश्री - आत्मा जानेगा, जड़ तो जानेगा नहीं; वही उत्तर देगा, आत्माके सिवाय कोई उत्तर देनेवाला नहीं। अतः वही करना है । कृपालुदेवने मुझे कहा कि उत्तर मिलेगा । मैं तो विचारमें पड़ गया कि यह क्या कहा ! और अंदर उथलपुथल होने लगी कि अब कहाँ जाऊँ? किसके पास जाऊँ ? फिर समझमें आया । अतः योग्यताकी कमी है । यह सब आवरण है, इसके हटने पर ही काम होगा। “इसके मिलनेपर, इसको सुननेसे और इसकी श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी बातका आत्मासे गुंजार होगा ।" अभी यह देखा नहीं है, नमस्कार हुए नहीं है । सब तूंबीमें कंकड़ोंके समान । अतः कुछ करना पड़ेगा और कुछ है अवश्य । इस जीवको जो विघ्नकारक है उसे दूर करना पड़ेगा । I २. मुमुक्षु–२“भारी, पीलो, चीकणो, एक ज कनक अभंग रे।" परंतु पर्यायदृष्टि दूर हो तब न ? प्रभुश्री - पर्यायदृष्टि, सब संबंध है, अतः छोड़े बिना मुक्ति नहीं । करना पड़ेगा । २०३ २. मुमुक्षु - अब तो इसकी दया करें। कृपालुदेवने सौभाग्यभाई पर बहुत दया की है तो मेरी भी यही प्रार्थना है, बापजी ! I प्रभुश्री- देर किसकी है? तेरी देरमें देर है । मुझे भी कृपालुदेवने कहा था कि, 'मुनि, तुम्हारी देर देर है ।" तब मैं तो घबरा गया । तब कृपानाथने कहा, “अब क्यों घबराते हो ? अब क्या है ? अब क्या बाकी रहा?” कुछ बाकी नहीं रहा । यह तो कालदोष है, यह ऐसा ही है । उसे ही दिन कहेंगे कि जब दिवाली हुई ! तो इंकार नहीं किया जा सकता। किसीके रोकनेसे रुका है कि नहीं, हम नहीं आयेंगे? ‘सद्धा परम दुल्लहा' यह मेरे या तुम्हारे किसीके हाथमें नहीं है । जिसका काम जिससे हो, वही करेगा, जड़का चेतन नहीं करेगा और चेतनका जड़ नहीं करेगा। मुख्य नींव श्रद्धा - गुरुकी श्रद्धा, आत्माकी श्रद्धा । सब बात इसमें है और यह है हमारा भोजन, चख ले, चढ़ गया हो तो खा ले । बात इतनी चाहिये " अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हुंय; ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुं य ?” कृपालुके वचनको मान्य करें । " संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुव्विं सुणेह मे ।। " Jain Education International १. खोजते खोजते कई मर गये । २. तौलकी अपेक्षासे भारी, वर्णकी अपेक्षासे पीला और गुणकी अपेक्षासे चिपकनेवाला - ये पर्यायदृष्टिसे सुवर्णके अनेक भेद हैं मगर निश्चयसे सुवर्ण एक ही है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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