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________________ १९६ उपदेशामृत ता. २३-११-३५ शामको 'उपदेशछाया मेंसे वाचन ___ “आत्माकी निंदा करें; और ऐसा खेद करें कि जिससे वैराग्य आये, संसार झूठा लगे । चाहे जो कोई मरे, परंतु जिसकी आँखों में आँसू आयें, संसारको असार जानकर, जन्म जर और मरणको महा भयंकर जानकर वैराग्य पाकर आँसू आयें वह उत्तम है। अपना लड़का मर जाये और रोये, इसमें कोई विशेषता नहीं है, यह तो मोहका कारण है।" प्रभुश्री-अपनी बात है। बात आत्माकी ही है। वह नहीं किया । जीवका सही कर्तव्य तो यही है। अन्यत्र प्रेम-प्रीति करता है। पुरुषार्थ तो करता है, पर बाहरका, इसका नहीं। जिसकी दृष्टि आत्मा पर पड़ी, उसका बेड़ा पार है। परिणाम क्या आयेगा? समकित; विशेष पुरुषार्थ करे तो केवली भी हो सकता है । जन्म-जरा-मरण हो रहे हैं, उसमें सुख और दुःख ही है, अन्य कुछ नहीं। "प्रीति अनंती परथकी, जे तोडे ते जोडे एह।" यह सब छोड़ । छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। देरसबेर छोड़ना ही पड़ेगा। करनेका काम पड़ा रह गया है! बाहरके काममें लगेगा, किन्तु इसका भान नहीं है। यह कैसी भूल है? कालका भरोसा नहीं है। अपनी दृष्टि समक्ष कितने ही चले गये, उस पर विचार ही नहीं है। " कोण छु? क्याथी थयो? शुं स्वरूप छे मारूं खरूं? कोना संबंधे वळगणा छे? राखं के ए परहरूं?" (अमूल्य तत्त्वविचार, 'मोक्षमाला') इसका विचार नहीं है। यह अन्य सब क्या है? वह आत्मा नहीं है। इसमें बात वैराग्य की है। अन्य सब छोड़ना है-परका त्याग । विचार नहीं हुआ। असंग है उसको नहीं सँभाला। सच तो यह है, अन्य नहीं। ज्ञानीने कह दिया : 'असंग-अप्रतिबंध,' पर उसका ध्यान नहीं। आत्मा कैसे देखा जाता होगा? कैसा होगा? अब हमें क्या करना चाहिये? १. मुमुक्षु-जिसको आत्माका परिचय हो उसका समागम करना, उससे समझना, उसके बोध पर विचार करना, उस प्रकारका परिणाम लाना। प्रभुश्री-यह तो एक प्रकारका उद्यम हुआ। यह भी कर लिया, पर हाथ नहीं लगा। १. मुमुक्षु-ऐसा नहीं किया है, नहीं तो हाथ लगता। प्रभुश्री-सबने अधूरा छोड़ा; पर किसीने पूरा किया? फिर कैसे निबटारा हो? २. मुमुक्षु-किया तो सही, पर भाव और परिणाम वैसे नहीं किये, जिससे कचास रह गई। प्रभुश्री-हाँ, यह तो कमी बताई । ठीक है, छोड़ो ये सभी बातें । एक कुछ करना रह गया, वह क्या है? ललचा गया-“बेचारी इतना रो रही है तो उसके सामने देखनेमें क्या दोष है?" ऐसा सोचकर उसने ज्यों ही दृष्टि उस ओर की, यक्षने उसे उछालकर नीचे डाल दिया, देवीने उसे त्रिशूल पर झेलकर टुकड़े-टुकड़े कर समुद्रमें फेंक दिया। जिनरक्षित ललचाया नहीं, तो स्वदेश पहुँच गया। इस कथाका बोध यह है कि जगतकी माया, पुद्गल अनेक प्रकारसे लुभाकर आत्माको उसकी प्रीतिमें फँसाते हैं; किन्तु स्वयं न ठगाकर, एकमात्र मेरा आत्मा ही सच्चा है, ऐसा माने। शेष सब माया है। देहादि परवस्तु पर मोह न करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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