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________________ उपदेशसंग्रह-१ १९५ तैयार है ? तेरी देरमें देर है। सभी मुमुक्षुओंको मानने योग्य है। देखना हाँ! पकड़ ढीली मत करना और अन्य नहीं देखना । 'एक पकड़ और मान्यता कर। एक आत्माको देखना है। ★ ★ ___+ एक धनवान शेठको जिनरक्षित और जिनपालित नामक दो पुत्र थे। जब वे बड़े हुए तब व्यापार कर स्वावलंबनसे धन कमाकर आत्मसंतोष प्राप्त करनेकी इच्छासे माता-पिताके प्रेम और घर पर रहनेके आग्रहकी अवगणना कर हठ कर परदेश गये। बहुत माल भरकर जहाजको दूर देशमें ले जाकर माल बेचकर वहाँसे मसाले आदि उत्तम वस्तुएँ खरीदीं। फिर स्वदेश लौटनेको निकल पड़े। रास्तेमें तूफानसे जहाज टूट गया, किन्तु वे दोनों एक द्वीप पर पहुँच गये। वहाँ एक रयणादेवी रहती थी। उसने उन दोनोंको ललचाकर अपने घर पर रखा। उन्हें अनेक प्रकारके विलासमें मग्न किया। घरकी भी याद न आये ऐसा कृत्रिम प्रेम दिखाकर उन्हें विषय-सखमें लीन कर दिया। एक दिन इंद्रकी आज्ञासे उसे समद्र साफ करनेका काम सौंपा गया। अतः उसने उन दोनों भाइयोंसे कहा कि किसी विशेष कामसे मुझे तीन दिनके लिये बाहर जाना है, किंतु तुम्हें यहाँ कुछ अड़चन नहीं होगी। द्वीपमें जहाँ घूमना हो वहाँ घूमना, पर एक उत्तर दिशामें मत जाना। यों कहकर वह काम पर चली गई। दोनों भाई सब ओर घूमकर बगीचे आदि स्थान देखते रहें। उत्तरमें जानेका निषेध होनेसे उस ओरकी विशेष जिज्ञासा हुई कि देखें तो सही, वहाँ क्या है? यों सोचकर उस ओर चले। वहाँ हड्डियाँ आदि दुर्गंधी पदार्थोंके ढेर लगे थे। दूर जानेपर एक व्यक्ति शूली पर चढ़ाया हुआ दिखाई दिया, जो चिल्ला रहा था। वे दोनों उसके पास पहुँचे। उसका मरण निकट लगता था। उन दोनोंने पूछा, "हम आपका क्या भला कर सकते हैं?" वह बोला, "भाई, मैं तो अब मृत्युके निकट हूँ इसलिये बच नहीं सकता। लेकिन तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। तुम्हारी तरह मैंने भी रयणादेवीके साथ अनेक विलास भोगे हैं, पर समुद्र साफ करनेका अवसर आया तब तुम उसे मिल गये, जिससे मेरी यह दशा कर दी है। अभी वह नहीं है इसलिये तुम इस प्रदेशमें आ सके हो। अन्य किसीके मिल जाने पर तुम भी शूली पर चढ़ा दिये जाओगे।" यह सुनकर दोनोंने हाथ जोड़कर उससे विनती की कि कोई उपाय हमारी मुक्तिका हो तो कृपा कर बताइये। उन्होंने कहा कि समुद्र किनारे एक यक्ष रहता है, वह प्रतिदिन दोपहरमें पुकार करता है कि किसे तारूँ, किसे पार उतारूँ? उस समय उसकी शरण ग्रहण कर कहना कि “आप जो कहेंगे वह हमें मान्य है, पर हमें बचाइये और हमारे देश पहँचाइये।" ऐसा कहने पर वह मगरका रूप धारणकर तुम्हें पीठ पर बिठायेगा और यदि तुम उसके कहे अनुसार करोगे तो सागर पारकर स्वदेश पहुँच जाओगे। इस उपायकी परीक्षा करने वे दूसरे दिन गये। यक्षको विनति की तब उसने कहा कि तुम्हें ललचानेके लिये रयणादेवी आयेगी, किंतु तुम उसके सामने देखोगे भी नहीं। जो उसके प्रति प्रेमवान बनकर ललचायेगा, उसके मनको जानकर मैं उसको पीठसे उलट कर समुद्रमें फेंक दूंगा। दोनोंने समुद्र पार होनेके लक्ष्यसे उसकी शर्त स्वीकार की। तब वह मगर बनकर किनारे आया और दोनों उसकी पीठ पर बैठ गये और मगर शीघ्रतासे समुद्र पार करने लगा। तीसरे दिन रयणादेवी आई तब उन्हें घर पर नहीं देखा तो जान गई कि उन्हें कोई भेदी मिला है। अतः उनको ढूँढनेके लिये वह समुद्रमें चली गई और आकाशमें रहकर विलाप करती हुई दोनोंसे प्रार्थना करने लगी। जिनरक्षित गंभीर और समझदार था। वह तो उसकी ओर पीठ करके ही बैठा रहा। चाहे जैसा हावभाव करे या विनती करे तो भी उस ओर ध्यान नहीं दिया। उसके कपटजालको वह मृत्युरूप ही समझता था। वह तो फँसेगा ही नहीं ऐसी प्रतीति हो जाने पर अब वह केवल जिनपालितका नाम ले लेकर बारंबार कहने लगी-“मैंने तुम्हें क्या दुःख दिया है? मेरे सामने देख लेने मात्रसे मुझे आश्वासन मिलेगा। पहलेकी बातोंको यादकर कृपाकर मेरे स्नेहको याद करो, ऐसे निष्ठुर न बनो, अबला पर दया करो।" ऐसे वचनोंसे जिनपालित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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