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________________ १९४ उपदेशामृत पाँच वर्ष निकल गये। 'एकांतर उपवास आदि त्यागकी क्रिया करते थे पर अन्तरंग परिणमन कुछ नहीं - अहंकार और मान बढ़ा । बड़े-बड़े श्रावक-श्राविकाएँ सन्मान, पूजा - सत्कार करते । शास्त्रकी बात बड़बड़ बोल जाते, पढ़ जाते - वो भी मनमें अहंकार रखकर । लो, ऐसे काम किये ! कहनेका तात्पर्य कि फिर कुछ अक्कर चक्कर बात हुई । नहीं बात, नहीं विस्तार, न जान, न पहचान; पर सूर्य उदय होता है और पहले प्रभात होता है वैसे पहले सुना । पूर्ण सूर्य उदय हो तब दिन होता है। अंबालालभाईसे परमकृपालुदेव संबंधी जूठाभाईकी बातें सुनी। परंतु उसमें अपना अहंकार और अभिमान अभी विद्यमान ही था । मनमें हुआ कि बात तो उसीकी है, पर ऐसा कुछ था नहीं । फिर भी विश्वास तो हुआ कि कुछ है । उसमेंसे सहज मिलने पर, अंबालालभाई बैठे हुए थे और अचानक कृपालुदेवकी बात की, हमने भी कान लगाकर सुनी। यह क्या है ? किसे कहते हैं ? दूसरी बातें सुनते हैं वैसे ही यह भी सुनी और सुननेके साथ बात न्यारी ही हो गई ! यह मैं अपनी स्वानुभवकी बात कर रहा हूँ। जैसे संसार छोड़कर दीक्षा ली थी, वैसे ही यह बात सुनते ही सब बदल गया ! फिर तो, वही बातें सुनते रहे । जूठाभाईका पत्र पढ़ा। उसे पढ़कर फिर मनमें हुआ कि जायेगा कहाँ ? तबसे बदला सो बदला, सो आज और अभी तक यों ही है। न बोध, न समागम, न कुछ कहना, पर तुरंत अकेला निकल पड़ा, संघ आदि सबसे अलग हो गया। इनको (जेसींगभाई सेठको) देखा था और मिले थे, जूठाभाईको भी देखा था किंतु उस समय कुछ भान नहीं था। बादमें उगरी बहनको पहचानता, पहले पता नहीं था क्योंकि औरतोंके साथ क्या काम ? बात तो पूछनेकी और सुनकी होती है और उसीकी उमंग रहती है । मनमें लगा कि इसमें कुछ रहस्य जरूर है और फिर सब बैठ गया । अब कहाँ जाऊँगा? बकरोंकी टोलीमें सिंह हो, किन्तु अपनेको बकरा मानकर फिरता रहे, पर जातिभाई मिले तो बताये कि तू तो सिंह है, बकरा नहीं । सिंहको सावधान होनेके बाद फिर बकरा होनेका भाव नहीं रहता । फिर तो उनके वचन कानमें पड़े और अधिक बातें सुनी, जिससे पक्का होता ही गया । पर यह सच्ची बात किसीसे कही नहीं जा सकती थी- सभी बड़े-बड़े साधु बने बैठे थे । 1 1 लो, यह चमत्कार किसने किया? किसने कहा ? इसलिये, इसमें पूर्वकृत और पुरुषार्थकी आवश्यकता है। यह मनुष्यभव है सो पूर्वकृत है । अब उसके द्वारा सत्पुरुषार्थ करना चाहिये । अतः स्वयंको तैयार होना है। इसकी देरमें देर है । वह छिपा नहीं रहता। अधिक नहीं कहा जा सकता। कहनेसे उसमें खामी आ जाती है। कोई दो भवमें तो कोई एक भवमें मोक्ष जायेंगे; इसका पता तो होता है, पर कहा नहीं जा सकता। इस प्रारब्धमें * " दहीका घोडा' और फालकाकी भाँति फिरता है वह तो कर्म है जिसे भोगने पर ही छुटकारा है । जो जानता है, वही करना है, अतः निश्चित, नक्की, पक्का कर लेना चाहिये । गुप्त बात कहनी है, दबाकर, जोरसे भी यही हँस देना है । पूनामें भगवानके समक्ष सभी भाइयोंको पुकारकर कहा था, वही बात आज भी है, इस समय भी वही चित्रपट है । इनको अन्य सब छुड़वाना है और एक मात्र आत्माका ही करवाना है । तू १ एक दिन उपवास और एक दिन आहार यों क्रमशः उपवास आहार करनेका व्रत । * 'एनघेन' के खेलमें दाववाला लड़का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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