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________________ १८८ उपदेशामृत खबर कहाँ है? कुछ बाधा आयी, तो अब क्या करें? पुरुषार्थ अनंत बार किया, उसका फल मिला, पर कार्यसिद्धि नहीं हुई । २. मुमुक्षु - अब तो वह लेकर ही जाना है । प्रभुश्री - बोबड़ा - तोतला, पागल-बुद्ध जैसा, मर! सूझता है वैसा दीखता है । वह सब बाहरका देखेगा । " जहाँ लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहीं, तहाँ लगी साधना सर्व झूठी ।" सिर मुँडाया, जटा रखी, राख लपेटी, तप तपा - पुरुषार्थमें कमी नहीं रखी, पर जो करनेका है वह क्या है ? और कैसे किया जाय ? २. मुमुक्षु "वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो; अब क्यौं न बिचारत है मनसें, कछु और रहा उन साधनसे. ' प्रभुश्री-शक्कर डाले तो मीठा होता है। नमक डाले तब तो खारा होता है। यह तो थप्पड़ मारकर ठोसा दिया है। " अब क्यौं न बिचारत है मनसे ?” कोई विचार ही नहीं करते। इसका अर्थ समझमें नहीं आया और कौन कह सकता है ? " मुख आगल है कह बात कहे ।" यह क्या कहा ? बताओ । २. मुमुक्षु - ज्ञानीने जाना, देखा, वह आत्मा । प्रभुश्री - कौन मना करता है ? यही आत्मा है । दिन उदय हुआ तो यही उदय हुआ । २. मुमुक्षु - यों तो सिर फोड़ने पर भी पता नहीं लगता और बुद्धि थक जाती है । कुछ उपाय नहीं चलता । प्रभुश्री - 'चुनीभाई, चुनीभाई' बोलते रहें, पर देखा न हो तो पहचान नहीं सकते । वहाँ तक कचास है, खामी है । “पावे नहीं गुरुगम बिना, ये ही अनादि स्थित ।” उसके बिना प्राप्त नहीं हो सकता। अतः कुछ चाहिये । कमी किसकी है? योग्यताकी । सुन लिया, सुन लिया कहते हैं, पर सुना नहीं । मात्र नाम लेते हैं, बातें करते हैं किन्तु परिणत नहीं हुआ । बात परिणमनकी है । पापका बड़ा बाप भाव है । उसके बिना किसीको नहीं होगा । क्षण क्षण वृत्ति बदलती है, अतः अन्य देखता है वह नहीं है । “इसके मिलनेसे, इसके सुननेसे और इसकी श्रद्धा करनेसे ही छूटने की बातका आत्मासे गुंजार होगा ।" दूजा क्या कहूँ ? " आत्माको जाना उसने सब जाना ।" बातें बघारनेसे काम नहीं होता ।" परिणमनसे ही छुटकारा है । परिणमन किसे कहते हैं ? अभी पुरुषार्थ किया पर उलटा । नींदमें भी बोल उठता है - "मैं", किन्तु यह हाथ नहीं लगा । इस आँखसे दिखाई नहीं देगा; उसके लिये दिव्य चक्षु चाहिये । और इसकी आवश्यकता है। इसी का नाम ज्ञान रखा। दिव्य चक्षु कहें, दीपक कहें - सब बोध हैं; पर समझमें नहीं आया। किसीको कहें कि भाई, यों होकर इधरसे आना, तब उधरसे आ सकते हैं, दूसरी ओरसे नहीं । "इसके मिलनेसे, इसके सुननेसे और इसकी श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी बातका आत्मासे गुंजार होगा ।" ये वचन लेने हैं। मान्य ये हैं, भावना यह करानी है । यह कोई “गोकुल गाँवको पिंड़ो ही न्यारो ।” ⭑ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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