SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह-१ १८९ यह देववंदन है सो ऐसा वैसा नहीं है। इसमें कर्म क्षय होते हैं। करने योग्य है। पुण्यबंध होता है और देवगति होती है। जीवको पता नहीं है। ता. २२-११-३५, सबेरे पत्रांक ६४ का वाचन + "पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥"-श्री हरिभद्राचार्य क्या योग है! जागृत हो गया? वचन अमूल्य हैं। एक एक वचनमें अनंत आगम समाये हैं। वे वचन कहे जायेंगे। मनुष्यभव दुर्लभ है। उसमें अभी पाँच इंद्रियाँ, जानना, देखना, सुनना यह मनुष्यभवके कारण है, उसमें सत्संग दुर्लभ है। समय बीत रहा है। 'समयं गोयम मा पमाए' यह अलौकिक वचन है! काम है भावका। भाव हुआ तो परिणमन होगा, भाव होना चाहिये। जैसे संसारमें कहते हैं-तुझे अपना भान है या नहीं? वैसा ही इस जीवको भान रखकर अवश्य श्रवण करना चाहिये । 'सवणे नाणे विन्नाणे' अभी मनुष्यभवमें सुननेका योग है, वह बहुत दुर्लभ है। बार बार ऐसा योग नहीं मिलेगा। सत्पुरुषके एक एक वाक्यमें, एक एक शब्दमें अनंत आगम समाये हुए हैं सो कैसे होगा? कल्पनाने इस जीवका बुरा किया है। वृत्ति क्षण क्षण बदलती है। सामान्य भाव हो गया है। सत्संग महा दुर्लभ है। सत्पुरुषका समागम है, उनका बोध है, उससे कोटि कर्म क्षय होते हैं । जीवको भान नहीं है। अभी जो समय बीत रहा है वह अपूर्व है। अब जाने दे, जाने दे, मर गया अभिमानमें। _"नथी लघुता के दीनता, शुं कहुं? परम स्वरूप." __सबसे श्रेष्ठ लघुता है। ज्ञानीके वचनका श्रवण करें। उससे इस जीवको अगाध लाभ होता है। मायाके स्वरूपमें संसारमें हजारों रुपयोंका लाभ होता है, उससे यह अधिक है। कुछ किया है तो यह मनुष्यभव मिला है। यह अवसर प्रमादमें और भ्रांतिमें निकल रहा है। वचन सुनने योग्य और हृदयमें धारण करने योग्य है। मर! चाहे जैसा कहा, तुझे तो सुनने जैसा है। एक आत्मा धर्म है। वह अरूपी है। पर ध्यानमें रखना, जिसने यथातथ्य जाना है उसकी वाणी है और वह अमूल्य है। हे प्रभु! मुझे पता नहीं है, पर वह मेरे कानमें पड़ो। ऐसा करनेसे कितना काम बन जाता है? भव-बंधन छूट जाता है! बुरा हुआ उसे सामान्य कर देनेसे । हाँ, इसमें क्या? वे तो बात करते हैं और बोलते हैं, पर जाने दे, बात अपूर्व है। चिंतामणिका मूल्य नहीं आंका जाता, ऐसी बात है। इसमें क्या होता है? अनंतकालसे इस जीवने सब जाना है, अनंत साधन किये हैं, पर आत्माको नहीं जाना और समकित भी नहीं लिया। तू अलौकिक दृष्टिसे देख : हे भगवान! यह ज्ञानीकी वाणी निकल रही है। इसलिये हे प्रभु! मेरा काम है, वे कहते हैं वही करनेका । अनमोल क्षण बीत रहा है। अतः यह कर्तव्य है-अवसर आया है। एक इस चीजको ज्ञानियोंने संसारमें सबसे श्रेष्ठ देखा है। वह क्या है? समभाव । उसमें अनेक ऋद्धियाँ समायी हुई हैं। उलटा-सीधा, टूटा-फूटा बोला जाय उसे न देखें । समभाव है वही ____ + भावार्थ-मुझे न वीरमें पक्षपात है और न ही कपिल आदिसे द्वेष परिणाम हैं; परंतु जिनके वचन युक्तियुक्त हैं, वे ही ग्रहण करने योग्य हैं । (लोकतत्त्वनिर्णय, श्लोक ३८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy