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________________ उपदेशसंग्रह-१ ૧૮૭ सीझी न हो तब तक अलग रहती है, सीझने पर मिल जाती है। प्रभु, सबका भला करना । जैसे चुटकी भरकर, डाँटकर, मारकर कोई जगाता है, तब देखता है; वैसे ही यह देखनेका है। सत्पुरुषकी वाणी सुनी नहीं है। कुछ मारकर, डाँटकर, बोलकर, ठपका देकर भी करवाना है, छुड़वाना है। अवसर आया है! अतः अपने लिये तैयार हो जाओ। अपने लिये हैं, दूसरेके लिये नहीं। यह कहा नहीं जा सकता। ता. २१-११-३५, शामको __ऐसी वैसी गुत्थी नहीं है। बहुत उलझी हुई है। पुरुषार्थका काम आया है। "जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ ।" समझमें आये तो अच्छा, उसके बिना बेकार है। 'करो सत्य पुरुषार्थ' यह क्या कहा है? १. मुमुक्षु-जीवोंको संसारदुःखसे छूटना हो तो सत्पुरुषार्थ करें। सत्पुरुषके आश्रयमें आत्मकल्याणके सर्व साधन करना, वह सत्पुरुषार्थ।। २. मुमुक्षु-मोक्षके मार्गमें अंतरायरूपी बड़ा पहाड बाधक बना हुआ था, उसे कृपालुदेवने निकालकर फेंक दिया, उलट दिया, दूर कर डाला। उन्होंने कहा कि हमारे जैसे तुम्हारे सिर पर हैं, फिर तुम्हें क्या चिंता? तुम तो मात्र पुरुषार्थ करो। ३. मुमुक्षु-ज्ञानीका मार्ग अंतरंग है। इस जीवने बाह्य वृत्तिसे मोक्षकी विपरीत कल्पना की जिससे मोक्ष क्या है, इसका उसे पता ही नहीं लगा। आत्माके अंतर्परिणाम सदैव साथ रहते हैं, यह जीवने जाना नहीं है। यदि जीव सच्चा पुरुषार्थ करे तो उसे मार्ग मिल जाता है। सच्चे पुरुषार्थकी कमी है। जीव अपनी समझसे मारा जाता है। प्रभुश्री-सच्चा पुरुषार्थ करे तो मिलता है। सब बात की, वह ठीक है, सच्ची है किंतु कमी रह गई; कहना इतना है कि भाव "भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान; भावे भावना भाविये, भावे केवलज्ञान." सब पापोंका बाप भाव है। जिसे जो कुछ भाव आया, उसकी मना नहीं की जा सकती। अन्य भाव करता है तब अन्य कार्य होता है। आत्मभाव नहीं किया। भाव करेगा वहाँ परिणाम होगा। दाल चूल्हे पर रखी है तो चढ़ेगी, उसके पीछे ढोकली भी चढ़ेगी। परिणामसे है। पर 'भाव बड़ो संसारमें ।' महापुरुषोंने बात की है, इसका किसीको भान नहीं है। बैठते-उठते, खाते-पीते, देखते, काम करते एक यही (आत्मा), किंतु उस भावका पता नहीं है। अन्य भाव हो जाता है। अन्यत्र बाह्यमें देखकर बाह्यभाव होता है, पर देखना तो रह ही गया। जिसके विषयमें कहा गया है, उस भावका पता नहीं है। इतनी ही बात है। २. मुमुक्षु-आत्मभाव कहा न? प्रभुश्री-'शक्कर, शक्कर' नाम लेनेसे मीठा हुआ क्या? लगा क्या? वृद्धावस्था आई-बूढ़े हो गये, आवाज भारी हो गया, बोला नहीं जाता। गाड़ीकी सब सामग्री हो तब गाड़ी कही जाती है और तभी चलती है । 'आत्मभाव' नाम तो अच्छा सुंदर दिया, कौन मना करता है? पर उसकी तुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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