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उपदेशामृत सत्साधन! यह कैसी अपूर्व बात! अवश्य करने योग्य । लाखों रुपये देने पर भी ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा। ज्ञानीपुरुषने दया की है। धन, पैसा-टका, बाल-बच्चोंकी इच्छा करता है और रखता है, तब फिर इसकी इच्छा नहीं? इसकी इच्छा रखी हो तो काम आये । कान लगा, ध्यानसे सुन। सत्संग अपूर्व है! फिकर करनेकी, चिंता करनेकी यह बात है। अरेरे! महा दुःख है। भगवानने कह दिया : 'समयं गोयम मा पमाए' हे गौतम! एक समय मात्रका भी प्रमाद मत कर। पल जो बीत गई, वह वापस नहीं आयेगी। अर्थात् व्यर्थ जा रही है। जो करना था वह तो रह गया। यह पंचमकाल, सबसे कठिनमें कठिन आया है। यह बात महापुरुषोंने कह दी है।
समाधि कैसे हो? अब कुछ उपाय है? १. मुमुक्षु-सत्पुरुषका दर्शन और योग, ये दोनों चाहिये।
प्रभुश्री-असावधानीमें जा रहा है। चिंतामणि जैसे इस मनुष्यभवको यों सामान्य कर डाला है। पता नहीं है। बालकके हाथमें हीरा आया, पर उसे पता नहीं, वैसे ही संसारमें पहचान नहीं है। अन्य सब मायाका रूप देखने दौड़ता है। धूल पड़े उसमें! पर जो देखना है वह रह गया है! आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है। उसकी अब कैसे सँभाल लेगा? सब भ्रांतिमें गया। आभूषण-गहने, कपड़ेलत्ते आदि मेरे मेरे करता हैं, पर आत्मा नहीं!
“हुं कोण छु? क्याथी थयो? शुं स्वरूप छे मारूं खरूं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखं के ए परहरूं?" जो करना है, जिसकी बात सुननी है, वह रह जाता है। अन्य बातें कान लगाकर सुनेगा, और यह नहीं! यह तो मैं जानता हूँ, मुझे पता है। पर नहीं, पता नहीं है। थप्पड़ लगी नहीं है। कुछ भी न जानता हो तो भी ‘आत्मा है,' 'ज्ञानी कहते हैं वह मुझे मान्य है।' इसमें कुछ रुपये-पैसे नहीं देने हैं, पर एक विचार करना है। 'कर विचार तो पाम ।' ये प्रत्यक्ष पुरुषके वचन हैं। उनको सुननेमें भी लाभ है। इस आत्माको तो ज्ञानीने देखा है। वह इस चर्मचक्षुसे दिखाई नहीं देगा, दिव्यचक्षुसे दिखाई देगा; वह ज्ञान है । ज्ञान चक्षु है। ये सब कौन हैं? कौन सुन रहा है ? आत्मा। जो बात करनी चाहिये वह तो पड़ी रह जाती है और परवस्तुको देखते हैं। यह जीव कल्पनाएँ करता है, किंतु उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है। पुकारकर कह रहा हूँ, हाँ! दूसरे स्थानसे छूटकर आत्माके स्थानपर कैसे बैठा जाय? विश्वास कहाँ है? नहीं तो कह देते। ज्ञानीके वचन अंतरमें खोदकर, अंकितकर रखें। जैसे माता कटु औषध बच्चेकी भलाईके लिये पिलाती है, वैसे कह रहा हूँ।
"आतम भावना भावतां, जीव लहे केवळज्ञान रे।" इसमें क्या कहा? पर तू उसे सुन, मान्य कर। सुनेगा तो काम बन जायेगा। भाव करनेसे काम होता है । दूजेकी चिंता-फिकर करता है तो इसकी नहीं ? बैठा-बैठा कल्पनाएँ करेगा, पर वे तो सब बँधे हुए संस्कार हैं।
"सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय;
सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय?' ऐसी बात है, चमत्कारी कथन है। ‘सत्साधन समज्यो नहीं' सद्गुरुके वचन हैं, प्रत्यक्ष पुरुषकी वाणी है, ऐसी-वैसी नहीं है, कहा नहीं जा सकता-यह तो आग्रहपूर्ण विनती है। दाल
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