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उपदेशसंग्रह-१
१८५ योग होने पर बिना समझाये भी स्वरूपस्थितिका होना हम संभवित मानते हैं, और इससे यह निश्चय होता है कि उस योगका और उस प्रत्यक्ष चिंतनका फल मोक्ष होता है, क्योंकि सत्पुरुष ही 'मूर्तिमान मोक्ष' है।
मोक्षमें गये हैं ऐसे (अर्हत आदि) पुरुषोंका चिंतन बहुत समयमें भावानुसार मोक्षादि फलका दाता होता है। सम्यक्त्वप्राप्त पुरुषका निश्चय होनेपर और योग्यताके कारण जीव सम्यक्त्व पाता है।"
प्रभुश्री-आत्मा करने ही आया है; पर कर्म, कर्म और कर्म ही करता है जो बंधन है। कृपालुदेवके वचन-बीस दोहें अपूर्व है! पर जीवने उन्हें सामान्य बना दिया है। अलौकिक दृष्टिसे विचार नहीं किया। ऐसे चिंतामणि रत्नको उसने कंकड़ समान माना। ये वचन! कृपालुदेवकी कृपासे मिले बीस दोहें आत्मभावसे बोलने चाहिये । और यदि उपयोगमें रहे तो कोटि कर्म क्षय होते हैं।
"प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पड्यो न सद्गुरु पाय;
दीठा नहि निज दोष तो, तरिये कोण उपाय ?" यह बात निकली। उपयोग इसमें आ जाये तो कोटि कर्म क्षय हो जाते हैं। यह भावना, इच्छा करे तो अन्य नीच गतिका नाश होकर देवगति प्राप्त होती है। ऐसा है; उसे सामान्यमें और लौकिकमें निकाल दिया है। यह सुनाई पड़ रहा है? १. मुमुक्षु-हाँ, सुनाई दे रहा है।
प्रभुश्री-सबको सुनाई दे रहा है? १. मुमुक्षु-सबको कैसे सुनाई दे? जिसको सुनाई देता है, उसे सुनाई देता है।
- प्रभुश्री-कहनेका तात्पर्य, श्रवण होना चाहिये। बड़ोंकी बात कही गई। वस्तु ऐसी है और यही काम करती है। सुन रहे हैं ? यहाँ आकर तो पुण्यके ढेर बँधते हैं। वीतराग मार्गमें और उनकी वाणीमें तो थोड़ी भी रज न समा सके ऐसा है। उनकी वाणीकी परीक्षा होती है, जैसे किसी अन्य वस्तुकी परीक्षा होती है वैसे। अब यह मनुष्यभव हाथसे निकल गया तो फिर पता नहीं लगेगा। अतः यह अपूर्व योग है। यह कानमें पड़ता है तो लाभ होता है। तब विशेष क्या कहूँ? संक्षेपमें कहना है कि 'भाव' है और 'परिणाम' है। अपने भावसे ही समकित और केवलज्ञान प्राप्त होता है। अनंतकालसे ओघा, मुँहपत्ती, जप-तप आदि साधन किये तो उसके फल भी मिले-निंदा नहीं करनी है। यह कोई अपूर्व बात है। बात है भोले-भालेकी, पर निकाल फेंकनी नहीं है। कोई कहे कि महाराज तो उपदेश देते हैं, उनका काम है। यों सामान्य कर देते हैं, वैसा न करें। यह तो उल्लास भावसे कहा जाता है। इसमेंसे जितना हो सके उतना करना चाहिये । लूटमलूट करने जैसा है। यह बड़ी गुत्थी है। यदि वह विघ्नकारक बने तो दूर करनी पड़ेगी। ऐसी वैसी बात नहीं है। महा लाभकारी है। ऐसा समझो कि मेरे धन्यभाग्य है कि यह बात कानमें पड़ती है। सुननेका सही अवसर आया है। अन्य सब भव हुए हैं, पर आत्मा मर नहीं गया। दूसरे सब साधन बंधनकर्ता हैं।
"सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय; सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय?"
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