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________________ १८० उपदेशामृत २. मुमुक्षु-सत्पुरुष मिले नहीं है, उनकी आज्ञा मिली नहीं है। सत्पुरुषकी श्रद्धा और निश्चय किया हो तो वह लक्ष्यमें रहता है, जिससे साधन सुलटे होते हैं। "निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवा सोय।” “वीतरागका कहा हुआ परम शांतरसमय धर्म पूर्ण सत्य है...हे जीव! अब तुझे सत्पुरुषकी आज्ञा निश्चय ही उपासना करने योग्य है।" यह ज्ञानीपुरुषसे सुनकर दृढ़ होना चाहिये। प्रभुश्री-इस जड़को कुछ कहना नहीं है। चैतन्यको कुछ चाहिये या नहीं? बोध, बोध । जैसे वस्त्र मैला हो तो साबुन लगाकर पानीसे स्वच्छ करते हैं, परिवर्तन हुआ या नहीं? अनंतकालसे अज्ञान है। वह ज्ञान मिलनेसे नाश होता है। गुरुगम नहीं है, प्रमादमें समय जा रहा है। अंतरंगसे किया हो तो वह कामका है। अतः ऐसा अवसर प्राप्त करके कर्तव्य है। सच्चे पुरुष, सद्गुरु मिले तो कार्यकारी है। यह ध्यानमें नहीं है। एक वचन सुनकर भी इस भव और परभवमें सुखी हो सकते हैं । “वीतरागका कहा हुआ परम शांत रसमय धर्म" का पाठ बोलो। ३.मुमुक्षु-“वीतरागका कहा हुआ परम शांतरसमय धर्म पूर्ण सत्य है, ऐसा निश्चय रखना। जीवकी अनधिकारिताके कारण तथा सत्पुरुषके योगके बिना समझमें नहीं आता; तो भी जीवके संसाररोगको मिटानेके लिये उस जैसा दूसरा कोई पूर्ण हितकारी औषध नहीं है ऐसा वारंवार चिंतन करना। यह परम तत्त्व है, इसका मुझे सदैव निश्चय रहो; यह यथार्थ स्वरूप मेरे हृदयमें प्रकाश करो, और जन्ममरणादि बंधनसे अत्यंत निवृत्ति होओ! निवृत्ति होओ!! हे जीव! इस क्लेशरूप संसारसे विरत हो, विरत हो; कुछ विचार कर, प्रमाद छोड़ कर जागृत हो! जागृत हो!! नहीं तो रत्नचिंतामणि जैसी यह मनुष्यदेह निष्फल जायेगी। हे जीव! अब तुझे सत्पुरुषकी आज्ञा निश्चय ही उपासना करने योग्य है। ___ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।" ... प्रभुश्री-जीवको विघ्न बहुत हैं। प्रमाद और आलस्यने बुरा किया है। नित्य पाठ करे तो पर्याय अच्छे होते हैं, पुद्गल अच्छे बँधते हैं, हित होता है। लक्ष्य किसे है? सामान्यमें बीत रहा है। मुझे लक्ष्यमें है, याद है, यों सामान्य कर दिया है। यह तो ज्ञानीपुरुषका कहा हुआ है, इससे हित होता है। जन्म, जरा और मरणने किसीको छोड़ा नहीं है; वहाँ आत्मसुख नहीं है, अतः जन्म आदिसे छूटना है। चाबी बिना छूट नहीं सकते। चाबी चाहिये । वह हो तो आत्मसुख मिल सकता है। अतः गुरुगम चाहिये । आत्माका भला सच्चे गुरुसे ही हो सकता है। उनकी पहचान नहीं हुई । स्थान स्थान पर गुरु मिलते हैं और यह जीव गुरु करता है, वह नहीं । ऐसे गुरु करे उसका फल मिलता है, पर मोक्ष नहीं हो सकता । जन्म-मरणसे छूटकर इस जीवने मोक्ष प्राप्त नहीं किया और उसने समकित भी प्राप्त नहीं किया। पिता एक ही होता है। समभाव बहुत बड़ी वस्तु है। सबमें साक्षात् मेरा आत्मा ही है, ऐसा देखो। सारा जगत पर्यायदृष्टिमें है और इसीसे बंधन है। संक्षेपमें कहा। धींग धणी (समर्थ स्वामी) तो सिर पर है। परंतु जो है उसकी भ्रांति है। जो ज्ञानी न हो, गुरु न हो, उसे गुरु कहता है! अब जाने दो सब । पता न चलता हो तो मध्यस्थ रह । जो यथातथ्य ज्ञानी हो वही ज्ञानी है। 'इक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स वड्डमाणस्स । संसारसागराओ, तारेइ नरं वा नारी वा ।। १. जिनवरवृषभ ऐसे श्री वर्धमान स्वामीको किया गया एक नमस्कार भी संसारसमुद्रसे तारनेवाला है, भले ही वह नर हो या नारी हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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