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________________ उपदेशसंग्रह - १ १८१ - इतना करना है । अकेला आया और अकेला जायेगा । मेरा कोई नहीं है । एक धर्म नहीं किया। सत्पुरुषकी वाणी दीपक है । "निर्दोष सुख निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी भले, ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे. " - श्रीमद् राजचंद्र सयाना न बन । सबसे बड़ा समभाव है । यह मोक्षका मार्ग है । १" एके जीये जीये पंच, पंचे जीये जीये दस ।” बात बहुत करनी है किंतु अवस्था हो गई है । पका पान टूटकर गिर पड़ा है और बिगड़ गया है । योग नहीं है । अन्य सब पर्याय नाशवान है, छोड़कर जाना पड़ेगा । ता. २०-११-३५, शामको पत्रांक ७५३ का वाचन "जो स्वरूपजिज्ञासु पुरुष हैं वे, जो पूर्ण शुद्धस्वरूपको प्राप्त हुए हैं ऐसे भगवानके स्वरूप में अपनी वृत्तिको तन्मय करते हैं; जिससे अपनी स्वरूपदशा जागृत होती जाती है और सर्वोत्कृष्ट यथाख्यात चारित्रको प्राप्त होती है। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा ही शुद्धनयकी दृष्टिसे आत्माका स्वरूप है । इस आत्मा और सिद्ध भगवानके स्वरूपमें औपाधिक भेद है । स्वाभाविक रूपसे देखें तो आत्मा सिद्ध भगवानके तुल्य ही है। सिद्ध भगवानका स्वरूप निरावरण है; और वर्तमानमें इस आत्माका स्वरूप आवरणसहित है, और यही भेद है; वस्तुतः भेद नहीं है। उस आवरणके क्षीण हो जानेसे आत्माका स्वाभाविक सिद्ध स्वरूप प्रगट होता है।" प्रभुश्री - परमार्थमें तन्मय हुआ जाय तो ? ऐसा किसीने न किया हो ऐसी बात नहीं है । सभी आत्मा हैं । इस संसारकी मायामें, हायहाय और माथापच्चीमें वृत्ति तन्मय करते हैं, पर यह जो आत्मा है उसकी बात भूल गये हैं । आत्मा है उसकी तो कोई चिंता ही नहीं है । 1 "हुं कोण छु ? क्यांथी थयो ? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं ? कोना संबंधे वळगणा छे ? राखुं के ए परहरूं ?" आत्माकी बात किसीको याद नहीं आती । पर मनुष्यभव प्राप्त किया है । भले ही स्त्री हो या पुरुष हो, पर आत्मा स्त्री-पुरुष, छोटा-बड़ा, सुखी-दुःखी, वृद्ध-युवान नहीं है । भूल जा, सब नाशवान है । पूरा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है । अतः आत्माकी चिंता नहीं है वह रख । यह परमार्थका प्रश्न है। किसी भी प्रकारसे परमार्थमें तन्मय बनो । सब यहीं पड़ा रहेगा, कुछ साथ नहीं चलेगा। एक आत्मा है | मनुष्यभव उत्तम कहा गया, उसमें भी अनेक दुःख हैं - व्याधि, दुःख-सुख, मुँह-सिर, हाथ-पाँव दुःखते हैं । सब धोखा! यह आत्मा नहीं है । उसे आत्मा मान बैठे हैं कि 'मैं हूँ', 'मुझे अच्छा कहा, मुझे बुरा कहा', पर ऐसा नहीं है। ऐसा दिन फिर नहीं आयेगा । लिया सो लाभ । यहाँ सुनने बैठे तो भारी पुण्यका संचय होता है । बाकी सर्वत्र राग-द्वेष हैं- पूरे जगतमें धमाचौकड़ी और माथापच्ची है । उसकी चिंता करता है, और वह तो जानेवाला है । ज्ञानीपुरुषने I । Jain Education International १. एक मनको जीतनेसे पाँचों इंद्रियाँ जीती जा सकती है और जहाँ पाँच इंद्रियों पर विजय प्राप्त की, वहाँ मन, पाँच इंद्रियाँ और क्रोध आदि चार कषाय मिलकर दसों पर विजय प्राप्त हो सकती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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