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________________ उपदेशसंग्रह-१ १७९ है, कर्तव्य है। अन्य न मानें, यह सब अन्य प्रवर्तन हुआ है। अब जाने दो, छोड़ दो, झटक दो, छोड़नेका छोड़ दो। छोड़ने योग्य है। अनंतकालसे अन्य ही करते रहे, उसका फल भोगा; अन्यत्र सभी जगह चौरासीके फेरेमें भटका । अतः मनुष्यभव प्राप्तकर अभी यह श्रवण करो। एक असंग' कह रहे हैं, अतः चेत जाओ। ज्ञानीने उसे जाना वह मुझे मान्य है। अन्य सबका फल-नरक, देवलोक आदि-अनंत बार भोग चुका हूँ। अतः अब जाने दो। अब तो 'असंगता'का ठप्पा लगाया है; अमृत बरसाया है! मघाके पानीके समान भर लेने जैसा है, प्रेमपूर्वक जानने जैसा है, भूलें नहीं। ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा। एक बाईने चौथे व्रतकी प्रतिज्ञा ली उस अवसर पर यह बात सुनी, पर फिर जोर देकर कहता हूँ कि आज तक मैंने जप, तप, क्रिया आदि की वह सब निष्फल हुई। अबसे सब एकमात्र आत्माके लिये करता हूँ, अन्य सुखके लिये नहीं। भगवानका कहा हुआ कहता हूँ। ज्ञानीने जो जाना, वही आत्माके लिये करूँ। बाईको देवगति मिलेगी। ज्ञानीकी कृपासे कहते हैं। कई जीव यहाँसे देवलोक जानेवाले हैं, अन्य गति नहीं है। अतः लूटमलूट लेने जैसा अवसर है। यह अवसर फिर नहीं आयेगा। अन्य भवमें नहीं सुन सकोगे। अतः चेत जाओ। काम बन जायेगा। आजसे, अभीसे चेतेंगे तो काम बन जायेगा। टेकको पकड़कर लक्ष्यमें लेनेवालेका काम बनेगा। ऐसा समझकर आत्मार्थ किया उसने अपना अवतार सफल किया। अपूर्व बात है! मार्ग महान है। मेहमान हो, अतः सावधान हो जाओ। अब तो बलिष्ठ बनकर, वीर बनकर सावधान हो जाओ। कृपालुदेवने कहा था, "हे मुनि! अब जला-मिटाकर, क्रियाकर्म निबटाकर चले जाओ।" हम सात साधु थे। उन्हें देख-देखकर कृपालुदेव प्रसन्न होते थे। मूल पकड़ श्रद्धा की थी। मुख्य बात समकितकी प्राप्ति । वह पकड़में नहीं आया। अन्य सब अब जलाकर राख कर दो। सब पर है, पुद्गल है। अपना तो एक आत्मा है। उत्कृष्ट बात है यह! जगा दिया है। जागे तब कार्यसिद्धि होती है। आपकी मान्यता सच्ची हुई है तो यहाँ आकर रहते हैं। यह अवसर तो अपने दिवालीके दिन मानें। एक वचन कानमें पड़े तो काम बन जाय । यही परीक्षा नहीं है, पहचान नहीं है। यही पकड़ । उन्हींका कहा हुआ, अन्य बात नहीं है। स्वामी एक है। संसारमें स्त्री एक पति करती है, वैसे ही हमें एकको ही स्वामी बना लेना है। ता. १९-११-३५, शामको पत्रांक ४३२ का वाचन ___ आत्माको विभावसे अवकाशित करनेके लिये और स्वभावमें अनवकाश रूपसे रहनेके लिये कोई भी मुख्य उपाय हो तो आत्माराम ऐसे ज्ञानी पुरुषका निष्काम बुद्धिसे भक्तियोगरूप संग है। उसकी सफलताके लिये निवृत्ति-क्षेत्रमें वैसा योग प्राप्त होना, यह किसी महान पुण्यका योग है, और वैसा पुण्ययोग प्रायः इस जगतमें अनेक प्रकारके अंतरायवाला दिखाई देता है। इसलिये हम समीपमें हैं, ऐसा वारंवार याद करके जिसमें इस संसारकी उदासीनता कही हो उसे अभी पढ़ें, विचारें। आत्मारूपसे केवल आत्मा रहे, ऐसा जो चिंतन रखना वह लक्ष्य है, शास्त्रके परमार्थरूप है।" १. मुमुक्षु-आत्मा आत्मरूपसे रहे यह लक्ष्य किस प्रकार होता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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