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________________ [२२] थोड़े समय बाद श्रीमद् राजचंद्र रालजसे वडवा (खंभातके निकट) पधारे। श्री लल्लुजीके साथ अन्य पाँच मुनि भी दर्शन-समागमके लिए वहाँ आये थे । छहों मुनियोंको श्रीमद्ने एकान्तमें बुलाया। सभी मुनि श्रीमद्को नमस्कार कर बैठे। श्री लल्लुजीको विरहवेदना असह्य हो गयी थी, और उसका कारण उन्हें मुनिवेश लग रहा था, अतः आवेशमें आकर उन्होंने कहा, “हे नाथ! मुझे अपने चरणकमलमें निशदिन रखें, यह मुहपत्ती मुझे नहीं चाहिए।" ऐसा कहकर मुहपत्ती कृपालुदेवके आगे डाल दी। “मुझसे समागमका वियोग सहन नहीं हो सकता," यों कहते हुए उनकी आँखोंसे अश्रुधारा बहने लगी। यह देखकर परमकृपालुदेवकी आँखोंसे भी अश्रुधारा बहती रही। थोड़ी देर मौन रहकर श्रीमद्ने देवकरणजीसे कहा, "मुनिश्रीको यह मुहपत्ती दे दो, और अभी इसे रखो।" श्रीमद्जी छह दिन वडवा रुके तब तक सभी मुमुक्षु भाईबहिनोंको साथ ही समागम-बोधका लाभ मिलता तथा मुनिसमुदायको एकान्तमें भी उनके समागमका लाभ मिलता। सम्प्रदायके लोग तथा साधुवर्ग इन छह मुनियोंकी निन्दा करते, किन्तु इससे इन छहोंकी यथार्थ धर्मके प्रति विशेष दृढ़ता हुई। फिर श्री लल्लुजीका पुण्यप्रभाव इतना था कि कोई उन्हें मुँह पर नहीं कह सकता था। वडवासे श्रीमदजी नडियाद पधारे। वहाँ श्री आत्मसिद्धि-शास्त्रकी रचना की। उसकी चार प्रतिलिपियाँ पहले करवाकर एक श्री लल्लुजी स्वामीको स्वाध्यायके लिए भेजी और साथमें पत्र लिखकर बताया कि आपको एकान्तमें स्वाध्यायके लिए यह भेजी है। श्री देवकरणजीको भी भविष्यमें यह हितकारी होगी, फिर भी उनकी विशेष आकांक्षा रहती हो तो सत्पुरुषके परम उपकारका इस भवमें कभी विस्मरण नहीं करेंगे ऐसी दृढ़ श्रद्धा करवाकर आपके समागममें अवगाहन करनेमें आपत्ति नहीं है, आदि सूचनाएँ लिखकर आत्मार्थमें दृढ़ता करायी थी। श्री लल्लजी अकेले वनमें जाकर श्री आत्मसिद्धिशास्त्रका स्वाध्याय करते। उस समयकी बात करते हुए स्वयं उन्होंने बताया था कि “उसे पढ़ते हुए और किसी-किसी गाथाको बोलते हुए मेरे आत्मामें आनन्दकी हिलोरें आतीं। एक-एक पदमें अपूर्व माहात्म्य है ऐसा मुझे लगता था। 'आत्मसिद्धि'का मनन, स्वाध्याय निरंतर रहनेसे आत्मोल्लास होता। किसीके साथ बात या अन्य क्रिया करते हुए 'आत्मसिद्धि'की स्मृति रहती। परमकृपालुदेवकी शांत मुखमुद्रा या ‘आत्मसिद्धि'की आनंदप्रद गाथाका स्मरण सहज रहा करता । अन्य कुछ अच्छा न लगता। अन्य बातोंपर तुच्छभाव रहा करता। माहात्म्य मात्र सद्गुरु और उनके भावका आत्मामें भास्यमान होता था।" ___सं.१९५३में श्री लल्लजीने खेडामें चातुर्मास किया था। उनके स्वाध्यायके लिए श्रीमद्ने 'मोक्षमार्गप्रकाशक' ग्रंथ खेडा भेजा था। उसमें स्थानकवासी पंथके विषयमें टीका है जिसे पढ़कर श्री देवकरणजीको अच्छा नहीं लगा और ग्रंथ पढ़ना बंद कर दिया। किन्तु फिर श्रीमद्जीका पत्र आया कि ग्रंथ पढ़ते हुए किसी बातके लिये अटकना योग्य नहीं है। दोषदृष्टिको छोड़कर गुणग्राही बननेकी प्रेरणा की थी जिससे पूर्ण स्वाध्याय होनेपर उसकी महत्ता समझमें आयी थी। सं.१९५४के चातुर्मासमें श्रीमद् राजचंद्र निवृत्ति लेकर पुनः चरोतरमें पधारे थे। उस वर्ष श्री लल्लजीने वसोमें चातुर्मास किया था और श्री देवकरणजीने खेडामें किया था। श्रावण माहके प्रारंभमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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