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________________ [ २३ ] श्रीमद् काविठा पधारे थे। वहाँसे नडियाद होकर वसो पधारे थे। श्रीमद्ने श्री लल्लजीसे पूछा, “कहिये मुनि! यहाँ कितने दिन रहें?" श्री लल्लजीको मुंबईके अतिरिक्त अन्य कहीं भी एक सप्ताहसे अधिक समागमका अवसर नहीं मिला था, अतः उन्होंने कहा, “यहाँ एक माह रहे तो अच्छा।" श्रीमद् मौन रहे। श्री देवकरणजीको यह समाचार मिले तब वे भी श्रीमद्जीको पत्र द्वारा खेडा पधारनेकी विनती करने लगे, किन्तु भाई अंबालालकी सूचनासे श्री लल्लजीने श्री देवकरणजीको पत्र द्वारा सूचित किया कि चातुर्मासके बाद समागम करानेके लिए श्रीमद्जीको पत्र लिखो तो हम सबको लाभ मिलेगा जो विशेष हितकारी होगा। श्री देवकरणजीका ऐसे भावार्थका पत्र आया, तब श्रीमद्जीने श्री लल्लजीसे पूछा, "मुनिश्री देवकरणजीको पत्र किसने लिखा था?" श्री लल्लजीने अंबालालका नाम न लेकर कहा, "मैंने पत्र लिखा था।" श्रीमद्ने कहा, “यह सब काम अंबालालका है, आपका नहीं।" श्री लल्लजी आहार-पानीके लिए गाँवमें जाते तब गाँवके अमीन आदि बड़े बड़े लोगोंको कहते कि मुंबईसे एक महात्मा पधारे हैं, वे बहुत विद्वान हैं। उनका व्याख्यान सुनोगे तो बहुत लाभ होगा। अतः अनेक लोग श्रीमद्के पास आते और ज्ञानवार्ताका लाभ लेते । श्रीमद्ने श्री लल्लुजीसे कहा, "सब लोग आवें तब आप सब मुनि न आयें।" इससे उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ कि एक माहके समागमकी माँग की थी, किन्तु उसमें भी यों अंतराय आ पड़ा। इससे बोधकी पिपासा बहुत बढ़ गयी। श्रीमद्जी जब वनमें बाहर जाते मात्र तभी सब मुनियोंको ज्ञानवार्ताका लाभ मिलता। एक दिन वनमें बावड़ीके पास श्रीमद् मुनियोंके साथ वार्ता करते हुए बैठे थे। चतुरलालजी मुनिकी ओर देखकर श्रीमद्ने पूछा, “आपने संयम ग्रहण किया तबसे आज तक क्या किया?" चतुरलालजीने कहा, “सुबह चायका पात्र भर लाते हैं वह पीते हैं, बादमें नस्य ले आते हैं, उसे सूंघते हैं, फिर आहारके समय आहार-पानी गोचरी करके ले आते हैं। वह आहार-पानी करनेके बाद सो जाते हैं। शामको प्रतिक्रमण करते हैं और रातको सो जाते हैं।" श्रीमद्ने विनोदमें कहा, “चाय और नस्य ले आना और आहारपानी करके सो जाना इसका नाम ज्ञान, दर्शन, चारित्र?" फिर आत्मजागृति हेतु उपदेश देकर श्री लल्लजीको निर्देश देते हुए श्रीमद्ने कहा कि “अन्य मुनियोंका प्रमाद छुड़वाकर उन्हें पढ़नेमें, अध्ययनमें, स्वाध्याय-ध्यानमें समय व्यतीत करवायें और आप सब दिनमें एक बार भोजन करें। चाय तथा नस्य बिना कारण हमेशा न लावें। आप संस्कृतका अभ्यास करें।" मुनिश्री मोहनलालजीने पूछा, “महाराजश्री और देवकरणजीकी उम्र हो गयी है तब पढ़नेका योग कैसे संभव है ?" उत्तरमें श्रीमद्ने कहा, “योग मिलनेपर अभ्यास करना चाहिए और यह संभव है। क्योंकि विक्टोरिया रानीकी वृद्धावस्था है फिर भी अन्य देशकी भाषाका अभ्यास करती हैं।" एक बार मुनिश्री मोहनलालजीने श्रीमद्से पूछा, “मैं ध्यान किस प्रकार करूँ?" श्रीमद्ने उत्तर दिया, "श्री लल्लुजी महाराज भक्ति करें तब आप कायोत्सर्ग कर सुनते रहें और उसके अर्थका चिंतन करें।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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