SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २१ ] श्री लल्लुजीने सं. १९५२ का चातुर्मास खंभातमें किया। श्री लल्लुजी सं. १९४९ में मुंबई पधारे उसके पहले ही हरखचंदजी महाराजका देहावसान हो गया था । परंतु श्रीमद् राजचंद्रके समागमसे श्री लल्लुजीकी श्रद्धा बदल गयी है, वे गृहस्थको गुरु मानते हैं और पहले एकान्तर उपवास करते थे वह भी बंद कर दिया है, ऐसी बात साधुओंमें और श्रावकोंमें फैल गई थी जिससे जनसमूहका प्रेम उनके प्रति कम हो गया था । उसकी चिन्ता किये बिना श्री लल्लुजी तो गुरुभक्तिमें तल्लीन रहते थे । श्री अंबालाल आदि खंभातके मुमुक्षु प्रत्येक पूर्णिमाको निवृत्ति लेकर रातदिन भक्तिमें बिताते । एक पूर्णिमाके दिन श्री लल्लुजी भी उनके साथ रातमें रहे । चातुर्मासका समय था और किसीको बिना कहे रातमें बाहर रहे जिससे संघमें बड़ा विक्षेप हुआ । श्रावक-श्राविकासमूहको भी यह बात बहुत अप्रिय लगी और लोगोंका श्री लल्लुजीके प्रति जो प्रेम था वह विशेष उतर गया । सं.१९५२में पर्युषण पर श्रीमद् राजचंद्र निवृत्ति लेकर चरोतरमें पधारे थे । मुनिश्री लल्लुजीको समाचार मिले कि श्रीमद् काविठा होकर रालज पधारे हैं। उन्हें विचार आया कि मैं चातुर्मासमें प्रतिदिन निवृत्तिके लिये बाहर वनमें जाता हूँ और दोपहरमें आकर आहार लेता हूँ तो आज दर्शनके लिये रालज तक जा आऊँ तो क्या आपत्ति है ? ऐसा सोचकर वे रालजकी ओर चलने लगे । गाँव थोड़ा दूर रहा तब एक व्यक्तिके साथ संदेशा भेजा कि खंभातके अंबालाल भाईसे जाकर कहो कि एक मुनि आये हैं और आपको बुलाते हैं। अंबालाल भाईने आकर कहा कि " आपको आज्ञा नहीं है, तो क्यों आये हैं?” श्री लल्लुजीने कहा कि “ आज्ञा मँगवानेके लिए ही मैं इतनी दूर रुका हूँ । यदि आज्ञाका भंग लगता हो तो मैं यहींसे वापस चला जाता हूँ। सभी मुमुक्षुओंको समागम होता है और मुझे अकेलेको विरह सहन करना पड़ता है, वह सहन नहीं होनेसे मैं आया हूँ ।" श्री अंबालालने कहा, “ऐसे तो आपको जाने नहीं दूँगा, मुझे उलाहना मिलेगा । अतः कृपालुदेव ( श्रीमद्जी) आज्ञा करें वैसा कीजिये। मैं पूछकर आता हूँ ।" फिर श्री अंबालालने जाकर श्रीमद्से बात की, तब उन्होंने कहा कि " मुनिश्रीके चित्तमें असंतोष रहता हो तो मैं उस ओर आकर समागम कराऊँ, और उनके चित्तमें शान्ति रहती हो तो भले ही वापस लौट जायें।" अंबालाल भाईने तदनुसार मुनिश्रीको निवेदन किया, अतः “ आज्ञाका पालन हो वैभा मुझे करना चाहिए, अतः मैं वापस लौट जाता हूँ," ऐसा कहकर वे खंभात लौट गये । विरहवेदना और आशाभंगसे आँखमेंसे आँसू बहने लगे । किन्तु आज्ञापालनमें ही आत्मकल्याण है और परमकृपालु अवश्य कृपा करेंगे ऐसी श्रद्धासे वह रात बितायी कि प्रभातमें समाचार मिले कि श्री सौभाग्यभाई, श्री अंबालाल और श्री डुंगरशी खंभातमें पधारे हैं । श्री सौभाग्यभाई उपाश्रयमें आये और परमकृपालुदेवने उन्हें मुनिश्रीको एकान्तमें बात करने को कहा था इसलिये श्री अंबालालके यहाँ उन्हें ले जाकर ऊपरी मंजिलपर एकान्तमें परमकृपालु देव द्वारा बताया गया स्मरणमंत्र बताया और प्रतिदिन पाँच माला फेरनेकी आज्ञा दी है ऐसा भी बताया, एवं थोड़े दिन बाद खंभात पधारकर उनको समागम करायेंगे ऐसे समाचार कहे । यह सुनकर मुनिश्रीकी आँखमें हर्षके आँसू छलछला आये और भाव प्रफुल्लित हुए । श्री लल्लुजीने श्री सौभाग्यभाईसे विनती की कि “दूसरे मुनियोंको भी आप यह मंत्रप्रसादी देनेकी कृपा करें ।” उन्होंने कहा कि “मुझे आज्ञा नहीं है। आप उन्हें बतायेंगे ऐसा परमकृपालुदेवने कहा है । " For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy