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उपदेशसंग्रह-१
१७३ जो कर्म नहीं बाँधता, उसको क्या होता है? एक सद्गुरुको ढूँढकर उसकी शरण लें, फिर दुःख-सुख आयें, देव-नरक गति चाहे जो आवें, तो भी बाल बाँका नहीं हो सकता; क्योंकि शरण एक सच्चे सद्गुरुकी आ गई। अन्य सब करनीके फल मिलते हैं। साता-असाताके फल जीवको भोगने पड़ते हैं। आत्मा उनसे भिन्न है। मेरा एक आत्मा, मैं उसे नहीं जानता; पर ज्ञानी गुरुने जो यथातथ्य जाना है, उसकी मुझे शरण है। शेष सब 'वोसिरे वोसिरे' (सबका त्याग)। विविध प्रकारसे वेदनीय आयेगी। सब सहन करें । वहाँ बँधे हुए कर्म छूटते हैं। प्रसन्न होना चाहिये, भले ही आयें । मनमें निश्चय किया है कि मेरा आत्मा मरेगा नहीं। सुख-दुःख जायेंगे; आत्माका नाश नहीं होगा। एक उसीकी शरण है। इतनी दृढ़ता रखकर सच्चेकी शरण रखें कि मेरा एक आत्मा, अन्य सगे-संबंधी नहीं। एक 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' यह मंत्र है, यदि जीवको वह स्मृतिमें आ जाय और भान रहे तब तक वही रहे, अन्य नहीं। "एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी।'-की तरह यही एक पकड़ रहें। अन्य संसारी प्रसंग देखें नहीं, अनंतबार मिले, पर अपने हुए नहीं। अकेला आया और अकेला जायेगा। 'श्रीमद् राजचंद्र में से वाचन
___"विशेष रोगके उदयसे अथवा शारीरिक मंदबलसे ज्ञानीका शरीर कंपित हो, निर्बल हो, म्लान हो, मंद हो, रौद्र लगे, उसे भ्रमादिका उदय भी रहे; तथापि जिस प्रकारसे जीवमें बोध एवं वैराग्यकी वासना हुई होती है उस प्रकारसे उस रोगका, जीव उस उस प्रसंगमें प्रायः वेदन करता है।"
बोध और वैराग्य आत्मा है। 'हीरा, हीरा' कहनेसे क्या होता है? पहचान चाहिये । वैराग्य है वह आत्मा है। उसे ज्ञानीने जाना है। वह समझने योग्य है। बोध अनेक प्रकारका होता है, पर जिस बोधसे वैराग्य होकर आत्मा जागृत हो, वह बोध सच्चे पुरुषका कहलाता है।
रोग, व्याधि, पीड़ाके समय बोध हो तो वह क्या करता है? आत्मा है; आत्मा है तो जानता है। अभी दूसरे प्रकारसे कह रहा हूँ। पकड़ा तो पकड़ा, छोड़े
१. एक जंगलमें सियार, खरगोश और साँप तीन मित्र रहते थे। वे एक पेडके नीचे बातें करते बैठे थे। यारने कहा, "हमारे जंगलमें आग लगे तो हमें क्या करना चाहिये?" खरगोश बोला "मेरी तो सौ मति हैं कि जमीनमें खड्डा खोदूँ, दौड़कर दूर भाग जाऊँ या चाहे जहाँ छिप जाऊँ।” साँप बोला, “मेरी तो लाख मति हैं, जिससे चूहेके बिलमें घुस जाऊँ, पेड़ पर चढ़ जाऊँ या किसीको दिखाई न दूँ ऐसे गायब हो जाऊँ।" फिर सियार बोला कि "मेरी तो एक ही मति है कि सीधे रास्ते पर भाग जाऊँ।" इतनेमें चारों तरफ दावानल लग गया। सियार तो 'एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी' यों कहकर दो-तीन मील दूर भाग गया। ____दो-तीन दिन बाद जब अग्नि शांत हुई तब मित्रोंको ढूँढने सियार उस पेड़के पास आया। बिलोंमें खरगोशको ढूँढते हुए एक स्थान पर खड्डेमें उसकी पूँछ दिखाई दी तो उसे खींच निकाला और शोक करने लगा कि 'सो मत ससडी' (सौ मति बेकार हुई); बेचारा भुंज गया। फिर साँपको आसपास ढूँढा तो पेड़की ऊँची डाल पर ज्वालासे जला साँपका शरीर दिखाई दिया। यह देख वह बोल पड़ा कि
सो मत ससडी, लाख मत लबडी;
एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी. २. मूल गुजराती पाठ ‘छोड़े ते बेट्टो,
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