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________________ १७२ उपदेशामृत १“समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवारशुं गाढी; __ मिथ्यामति अपराधण जाणी, घरथी बाहिर काढी-हो मल्लिजिन०" मिथ्यात्वके सिवाय और कुछ छोड़ना है? ज्ञानी पुकारकर क्या कहते हैं ? मिथ्यात्व छोड़ो। तब कुछ है या नहीं? छोड़ना बहुत कठिन है, तथा सरल भी है-आँखें खोलें इतनी देर । कृपालुदेवने मुझे कहा-"मुनि, अब तुम्हें क्या है? अब क्या चाहिये? अन्य कुछ भी तुम्हारा नहीं है, एक आत्मा है।" तुरत बैठ गया। अतः छोड़ना पड़ेगा, त्यागना पड़ेगा। कोई साथ नहीं ले गया। ऐसा है या नहीं? हमें तो चपत मारकर बताया। अतः जिसे नहीं जानता था, उसे जाना। अब क्या है? क्या बाकी रहा? हमें तो आनंद आ गया। जीवने बात लक्ष्यमें नहीं ली है, वह लेनी चाहिये । कहनेका तात्पर्य, पहले श्रद्धा कर लो। किसकी श्रद्धा करें? जो है (सत्) उसकी । साँचको पकड़े तो कुछ हाथ लगे। झूठा काममें नहीं आता। मूल एकका अंक सीखनेकी बात इतनी ही है। उसे मानो। यह तेरा बल और स्फुरणा। अन्यके हाथमें नहीं, तेरे ही हाथमें है। अतः हो जा तैयार, अन्य क्या कहें? बात इतनी सी है। तैयार होनेकी आवश्यकता है। कृपालुदेव हमें और देवकरण मुनिको कहते थे कि तुम्हारी देरमें देर है। पर देवकरणजी अपनी चतुराईमें रहते थे। उन्हें मैं कहता अवश्य था, पर वे (दूसरोंको) कहते कि मुनि तो भोले हैं, मैं ठगा नहीं जाऊँगा। अंतिम बार, आखिर देवकरणजीकी चतुराई धूलमें मिल गई और उन्होंने कहा कि अब गुरु मिले, फल पका, रस चखा। ऐसा हुआ। ऐसा है । यह किसकी बात है ? आत्माकी। हजार बार इससे अधिक वेदनी आये तो भी क्या? पूर्वबद्ध उदयमें आता है, उसका क्या करें ? छोड़ना है, समझने पर ही छुटकारा है। यह बात है भेदी तथा ज्ञानीपुरुषकी, हाथ नहीं लगी। कहनेका अधिकार किसीका नहीं; पर भावना, इच्छा तो करा सकते हैं। परंतु बल तो उसे स्वयं ही करना पड़ेगा, उसके बिना कुछ कामका नहीं। ता. १७-११-३५,शामको [एक वृद्ध बाईने चौथे व्रतकी प्रतिज्ञा ली उस प्रसंग पर] वृद्धावस्था हो तो भी व्रत कहाँ ? फिर यह तो सबसे बड़ा शीलव्रत है। एक सत् और शील ये दो वस्तु सबको समझनी चाहिये । समुद्र-किनारा आया। समकित-प्राप्तिका मार्ग । देह जाय तो भी ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये। मनुष्यभव पाकर इस शील व्रतकी प्राप्ति बड़ी बात है। इसका बराबर पालन किया तो देवगति होती है। इस जीवको जो श्रद्धा है, वही सत्पुरुष, वही सद्गुरु और वही अपना धर्म है। २"धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म, जिनेसर; धरम जिनेसर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे तो कर्म, जिनेसर. धर्म जिनेसर गाउं रंगशुं." (आनंदघन चौबीसी) १. हे मल्लिनाथ भगवान ! आपने समकितके साथ ही नहीं, किंतु शम-संवेगादि रूप समकितके परिवारके साथ भी गाढ़ प्रेमसंबंध किया है, अतः मिथ्यात्वरूप मिथ्यामतिको अपराधी जानकर मनमंदिररूप घरमेंसे बाहर ही निकाल दिया है अर्थात् मिथ्यात्वका त्याग कर दिया है। २. सारा जगत 'धर्म धर्म' कहता फिरता है पर धर्मका रहस्य किसीने जाना नहीं है। धर्म जिनेश्वरके चरण (आश्रय) ग्रहण करनेके बाद कोई जीव (निकाचित) कर्मका बंध नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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