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उपदेशामृत कर्मसे दुःख मानते हैं। यह बात महापुरुषोंकी है। अत: पंडित आदि जो बड़े लोग हैं उन्हें भी माननी चाहिये । यह कर्तव्य है। आत्माको पहचानो। अवसर आया है। मनुष्य भव है। यह अमूल्य अवसर चला गया तो फिर जीव क्या करेगा?
ता. ११-११-३५, शामको
[एक मुमुक्षुभाईने चौथे व्रतकी प्रतिज्ञा ली उस प्रसंग पर वृद्ध अवस्था हो–बूढ़ा हो या साधु हो, चौथे व्रतकी प्रतिज्ञा तो लाभकारी है। यह मनुष्यभव प्राप्तकर बँधा है और दुःखी हो रहा है। दीपकमें पतंगे गिरकर मरते हैं त्यों मर रहा है और सुखकी हानि कर रहा है। महाव्रत तो महा लाभदायक है। धन्य है, भाग्य है, तिलक है। देवकी गति मिलती है, काम हो जाता है। बहुत भव किये । भावसे काम बन जाता है। 'जेवा भाव तेवा प्रभु फळे' (जैसे भाव वैसा फल मिलता है।) एक श्रद्धा साथमें ले जाय तो काम बन जाय। 'सद्धा परम दुल्लहा।' एक आत्मार्थके लिये होना चाहिये। कोई भेदी पुरुष मिला हो तब यह होता है। इतना विश्वास रख और मान कि 'ज्ञानियोंने देखा है सो आत्मा है।' यहाँ प्रमादको छोड़ना पड़ेगा। यह अवसर, मनुष्यभव चला गया तो कहाँसे मिलेगा? अतः त्याग और वैराग्य : वैराग्य यह आत्मा है। आत्माकी ओर भावना हो गई तो फिर चाहे जो होता रहे! एक आत्मा है, इस भवमें उसे पहचानना है, वह किसी भेदी पुरुष द्वारा पहचाना जायेगा । जप तप 'वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो ।' करनीका फल, मर जाओ, पर सत्संग करो। इतने जीव बैठे हैं पर कर्माधीन हैं, संकल्प-विकल्प करते हैं।
"जहाँ कलपना-जलपना, तहाँ मानुं दुःख छाय; ।
मिटे कलपना-जलपना, तब वस्तू तिन पाय."-श्रीमद् राजचंद्र अतः इतना अवसर आया है। प्रतिज्ञा कर लो, कुछ नहीं किन्तु इस आत्माके लिये । यथार्थ ज्ञानीने इस आत्माको देखा है; ज्ञानीने देखा वह मुझे मान्य है। मेरा सब झूठा है। एक न एक दिन देर-सबेर छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। यह थप्पड़ है। मैं जो यह बात कह रहा हूँ वह 'माननेकी बात' है। कुछ भी मान्यता हो तो उसका लाभ ही है। अतः चेत जाओ। समझा तभीसे सबेरा। अन्य सब जाने दो। एक समझ है। 'जो सुना सो प्रमाण ।' पर्याय पड़े उससे भी महा पुण्यबंध होता है। अन्य सब माया है । क्षण-क्षण वृत्ति बदलती है। क्या काम करने आया था और क्या कर रहा है? धूल पड़ी! यदि इतना-सा धैंट उतारेगा तो वह भी अमृत है। सबके हाथमें है। मात्र विश्वास कर ले न! पहला लेखा ही हाथ नहीं लगा; सुना पर गुना नहीं। तेरे ही भावकी बात है, वह भाव ज्ञानीने देखा है। ‘जोर दिखाता हूँ तो अपने स्वामीके बल पर।' यों स्वामी तो चाहिये न? मायाके जालमें सारा संसार फँसा हुआ है और उसे तो छोड़ना है। उनकी (सद्गुरुकी) पहचान हो गई हो, संग हुआ हो, परिचय हुआ हो तो काम बन जाय ।
अब यह पिंजर पुराना हो गया है, बोला नहीं जाता। जब तक किया जा सकता है, तब तक काम कर लेना है । दुःख, ज्वर, व्याधि आते हैं, पर वह तो बंधनसे मुक्ति हो रही है। जो कर्म भोग लिये हैं वे अब तुम्हारे पास हैं? नहीं। पूर्वबद्ध भोगे जा रहे हैं। "हम और आप लौकिक दृष्टिसे
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