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________________ उपदेशसंग्रह-१ १५९ आया है। सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। रोग, साता किसे नहीं है? साता भी पुद्गल है, उसे आत्मा नहीं कहा जा सकता। क्या किया? उत्तर देता है कि 'दल दल कर कुलडीमें डाला।' अनर्थ कर दिया। उनका एक वचन निकालें तो? आश्चर्यजनक है! १'जे लोकोत्तर देव, नमुं लौकिकथी।' इस तरह लौकिकमें निकाल दिया है। कृपालुदेवने मुझसे कहा और मैं घबराया। अब क्या करूँ? फिर लगा कि मुनि घबराये हैं। तब कृपालुदेवने कहा-'मुनि, गहरे उतरें।' दूसरे क्या करेंगे? 'आप समान बल नहीं, मेघ समान जल नहीं।' यहाँ कमी है-बोधकी और समझकी। सब उलटा किया है। छह पदका पत्र याद है? कोई बात खोलकर कहे तभी तो पता लगे न? अभी बहुत करना है। 'गहरे उतरें' इसमें तो बहुत समझनेका आ गया। बुरा कौन करता है? मन कहें, वृत्ति कहें, चित्त कहें-सब एक ही है। क्या यह आत्मा है? नहीं। इसे खड़ा रखना है। है, इसको (आत्माको) खड़ा रखें। "धिंग धणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट? विमल जिन, दीठां लोयण आज." यह सुननेकी योग्यताके बिना किसके पास बात करें? इसमें कमी किसकी है? विश्वास और श्रद्धाकी कमी है। मैं कृपालुदेवको मानता हूँ, भक्ति करता हूँ, ऐसा कहता है; पर जैसा है वैसा ही है। भूल हो रही है। कुछ अपूर्व बात की है! __ "चंद्र भूमिको प्रकाशित करता है, उसकी किरणोंकी कांतिके प्रभावसे समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, पर चंद्र कुछ भूमिरूप किसी कालमें नहीं होता, इसी प्रकार समस्त विश्वका प्रकाशक यह आत्मा कभी भी विश्वरूप नहीं होता, सदा-सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है। विश्वमें जीव अभेदता मानता है यही भ्रांति है।" बात सुनी नहीं, मानी नहीं; समझनेका पता ही नहीं है। यह बात किसे कही जाय? किसीको कहने जैसी नहीं है। कहनेका तात्पर्य, इसकी (आत्माकी) पहचान करानी है। किंतु बोधके बिना वह होगी नहीं और उसीकी तो कमी है। कृपालुदेवसे हमने पूछा-किसकी कमी है? कृपालुदेवने कहा कि बोधकी। तब हमने कहा कि बोध दीजिये। फिर कृपालुदेव कुछ नहीं बोले। यह अवसर जा रहा है। अतः चेतो, जागो। लो, अब कहाँ हैं अंबालालभाई, सौभागभाई, मुनि मोहनलालजी? लाओ, कहाँ है? ज्ञानी कैसे हैं? आश्चर्यजनक बात है! एक निधान होता है, उसमें सर्व वस्तु होती हैं। अंबालालभाई, सौभागभाई निधानकी भाँति भरे हुए थे। जब निकालो तब हाजिर! उनकी बात करनेवाला भी कौन है? कृपालुदेवने कहा था कि हमारी बात कौन मानेगा?-"शुक्ल अंतःकरणके बिना मेरे कथनको कौन मान्य करेगा ?" सुन, सुन, तेरा सब उलटा है, खोखलापन है। हमसे जो कुछ कहा गया सो कह दिया। जब तक सुख-समाधि है तब तक धर्म कर लो, फिर नहीं हो सकेगा। कहनेका तात्पर्य, जगाना है। जागृत हो जाओ, श्रोता बन जाओ। किससे बातचीत करनी है ? हम प्रलाप कर रहे हैं। बुरा लगा हो तो क्षमायाचना करते हैं। किसीका दोष नहीं है। कर्मका दोष है। 'जगत जीव है कर्माधीना ।' १. जो लोकोत्तर देव हैं उन्हें मैं लौकिक दृष्टिसे नमस्कार करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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