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________________ १५८ उपदेशामृत चौकड़ी (x)। 'जगत जीव है कर्माधीना, अचरज कछु न लीना।' संसारकी चार उपमा चमत्कारी है : समुद्र, अग्नि, अंधकार और शकटचक्र (गाडीका पहिया)। इसका *विस्तार अगाध है! कहाँ ऐसी बात! किसे कहें ? लक्ष्यमें ले तब न? सबमें क्या भूल है? मुमुक्षु-वास्तविक रुचि जागृत नहीं हुई। प्रभुश्री-भान नहीं है। किन्तु आत्मा है तो भान कहलायेगा। फिर भी जाना नहीं है। आत्माको जान लिया तो काम हो गया। आत्माको जाना तो समकित हुआ। उसे देखा तो दीपक प्रगट हुआ। ज्ञानी-अज्ञानी दोनों कर्माधीन हैं। यह बात किसकी है? जो सब छोड़कर सबसे उच्च श्रेणीमें आवे उस ज्ञानीकी। "समता, रमता, ऊरधता, ज्ञायकता, सुखभास; वेदकता, चैतन्यता, ये सब जीव-विलास.''-समयसार नाटक ५६ कितनी बड़ी शिक्षा है? सुना नहीं है। थप्पड़ मारने जैसी है। ऐसी वैसी वस्तु नहीं है। पता नहीं है। चिंतामणिको कंकर समझ फेंक देता है। कहनेकी बात यह है कि 'छह पद' अगाध हैं। योग्यता नहीं है। कण्ठस्थ होनेसे क्या होता है? किंतु यदि थोड़ी दृष्टि पड़ी हो तो दीपक प्रगट हो जाय । यह सब क्या है? अज्ञान है। ज्ञान दीपक है। बोधकी आवश्यकता है। सत्संगकी कमी है। सत्संगकी इच्छा नहीं है, जरूरत भी महसूस नहीं होती। "नहीं दे तू उपदेशकू, प्रथम लेहि उपदेश; __ सबसे न्यारा अगम है, वो ज्ञानीका देश."-श्रीमद् राजचंद्र ये सब मर्मके वचन हैं! अद्भुत है! दीपक प्रज्वलित हो ऐसे हैं। जरा-सी दियासलाई रगड़ते ही उजाला हो सकता है। पर 'छह पद' के पत्रमें स्थिरता रखे तो हो जाय। ‘कर विचार तो पाम।' उलाहना देना है कि सुना पर गुना नहीं। दूर करना पड़ेगा। कौन अर्थ समझता है? अर्थ तो वही जानते हैं। दूर करना पड़ेगा। कुछ तो करना चाहिये न? किससे करना? मुमुक्षु-ज्ञानसे। प्रभुश्री-बड़बड़ बोलना आ गया है। निंदा नहीं करनी है पर यह नहीं । ज्ञान क्या है? आत्मा है। मुर्दे हों तो कोई सुन सकता है? यह तो आत्माका प्रताप है। उसका माहात्म्य कैसा होगा? इसे जगाना है। यह बोलना होता है वह मेरा है ऐसा न समझें-कि सयानापन कर रहे हैं! पर ज्ञानीका कहा हुआ कहना है। अब किसको बुलाऊँ ? व्यवहारसे सेठको या अमुकको बुलाओ, ऐसा कुछ चाहिये न? किसका काम है अब? "ज्यां ज्यां जे जे योग्य छ, तहां समजवू तेह; त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह."-श्री आत्मसिद्धि लो, अब कुछ बोलने जैसा है? बोलेंगे? बोलोगे? कुछ नहीं, सब अज्ञान और मिथ्यात्व है। मात्र सत्संग करें, वही करना है, परीक्षाप्रधान बनें । वचन है, उसकी परीक्षा होती है। यह अवसर * देखें 'मोक्षमाला' शिक्षापाठ १९, २० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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