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________________ १५७ उपदेशसंग्रह-१ किसे खबर है? यह कहनेका तात्पर्य क्या है? यह एक थप्पड़ है। 'भान नहीं निजरूपर्नु' यह भान करना है। यही बात रह जाती है। ___अब यह पहचान कैसे हो? सत्संगकी बहुत कमी है। वैराग्यमें बहुत विघ्न हैं। व्यवहारमें समय खो रहा है, पर सत्संगमें नहीं! कुछ है पर कहा नहीं जाता। 'जो जाना उसे न जानें, नहीं जाना उसे जानूँ।' अब विचार कर। कैसा विचार? तो कहते हैं कि सत्संगका । अन्य विचार तो बहुत किये। अलमारीको ताला लगा हो तो चाबी बिना क्या करेगा? यह क्या बात आयी? मुमुक्षु-जिसके पास चाबी हो उसके पास जाना चाहिये। प्रभुश्री-क्या भूल नहीं? भूल है। सयाने बनकर बैठे हैं, सयानापन दिखा रहे हैं। क्या यह भूल नहीं है? जो काम कर रहा हो वह काम उसके लक्ष्यों होता है। और यह सो ऐसा? क्या तुम्हारे दिन लद गये हैं ? ऐसा? क्या सर्वत्र ऐसा आत्मा है ? 'जाग्रत हो, जाग्रत हो।' रत्नचिंतामणि जैसा है। ऐसी गालियाँ हैं। सुननेका साहस हो उसे कहना है। जागतेको कहा जाता है, सोतेको क्या कहना? सब व्यर्थ जाता है। समझना है। चुभोकर, धक्का मारकर कहना है। सबसे बड़ा बोध है, उसकी आवश्यकता है। तैयार हो जाओ। कोई वस्तु अपने पास हो और कहे कि मेरे पास नहीं है, तो वह झूठा है न? है तो पासमें ही, पर सावचेत होना भी तो आवश्यक है न? सोना नहीं है, जाग्रत रहना है आप सबको । स्वाद तो अलग होता है, पर आत्मामें आये तब । तब बंधसे छूटता है। गफलतमें क्यों रहा? किसके लिये ऐसा किया? अब अपने लिये करना है। कुछ है, बात गहरी है, परंतु मूल बात रह जाती है। __ता. ११-११-३५, सबेरे मनुष्यभव दुर्लभ है। पर मनुष्यभवमें सुख मानता है वहाँ सुख नहीं है। सुखकी भावना भी नहीं हुई। मात्र बोलते हैं, पर करते नहीं। मनुष्यभवमें करने योग्य है और उसमें होना संभव है। "ज्यां ज्यां जे जे योग्य छ, तहां समजवू तेह; त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह."-आत्मसिद्धि लीजिये, अर्थ कीजिये! “एक एक शब्दमें अनंत आगम समाये हुए हैं।" कैसा चमत्कारी है? सयानापन करने योग्य नहीं है। समझा तो है नहीं, पर समझ गया हूँ ऐसा मानता है और सयानापन करता है। 'आत्मसिद्धि' कुछ ऐसी-वैसी नहीं है, इसमें अनंत आगम समाये हुए हैं। जड़ तो सुनेगा नहीं। चेतन है पर 'भान नहीं निज रूपनुं ।' सब जीवोंके लिये है। सबको भूल निकालनी है। अजब बात है! ऐसा अवसर कहा मिलेगा? लूटमलूट करने जैसा है। चेत जाना योग्य है। सब आत्मा हैं गुरुके प्रतापसे । आत्मा है, पर भान नहीं है। अन्य सब संबंध है। प्रकृतिमें मति-श्रुत है और अन्य मान बैठा है चाचा, मामा, भाई आदि । पूरे जगतमें खदबद मची हुई है। कहने जैसा नहीं है, कहना मान्य भी नहीं होगा। किसे कहें, कहाँ जायें? यह तो ऊपर-ऊपरसे बातें करके धर्म मानता है-धर्मको तो जानता नहीं है। "धर्म धर्म सौ को कहे, धर्म नवि जाणे हो मर्म जिनेश्वर!" मैं तो समझ गया हूँ, ऐसा मानता है। धूल पड़ी तेरे समझनेमें, इस पर लगा शून्य और खींच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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