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उपदेशामृत मुमुक्षु-उसे तो जाना नहीं है।
प्रभुश्री-भूल इतनी ही है। इसमें क्या अड़चन है? मात्र दृष्टिकी और समझकी भूल है। 'समझ समझकर जीव ही गया अनंता मोक्ष ।' तैयार हो जाओ। भले ही बीमार हों, रोगी हों, दुखी हों, पर यह एक बात है माननेकी । यही कर्तव्य है। दूसरे तो जैसे भाव वैसा फल । जैसा भाव।।
ता. ८-११-३५ शामको ये अलौकिक बातें हैं । लौकिकमें निकाल देने जैसी नहीं है। एक सत्संग है जो शांतिका स्थान है, इस जीवको विश्रांतिका स्थान है। परिभ्रमण और बंधनमें काल बीत रहा है। इसमें आत्महित नहीं है। पहचान हो या न हो, मिले हों या न मिले हों, सभी आत्मा हैं। परिवर्तन होना चाहिये, सावचेत होना चाहिए। वह (आत्मा) कहाँ है? केवल सत्संगमें है। अन्य बातें संसारकी जाल है, फँसकर मर जाना है। गफलतमें समय जा रहा है, प्रमादमें जा रहा है, पहचान नहीं है। बात कर्तव्यकी है। निमित्त बनाये तो बन सकता है। काल सबके सिर पर घूम रहा है। कोई बचेगा नहीं। जो कर्तव्य है वह किया नहीं। यह बात किसी सत्संगमें समझमें आती है। मन और वृत्ति सभीको हैं, क्षण-क्षण बदल रही हैं। उससे थप्पड़ मारकर जगाना है। सब पंचायत छोड़। अब जान लिया। सब थोथा है, संसारका काम अधूरा रहेगा, पूरा होनेवाला नहीं है। अतः उसमेंसे जो किया वह काम । जो करना है वह यहीं है। क्या करना है?
मुमुक्षु-समकित करना है।
प्रभुश्री-रामका बाण है, कैसे मिथ्या कहा जाय? किसके गीत गाने हैं ? वरके गीत गाने हैं। समकित कैसे होता है?
१. मुमुक्षु-भाव और परिणामसे। २. मुमुक्षु-सद्गुरुके बोधसे समझमें परिवर्तन होनेसे।
प्रभुश्री-भाव और परिणाम किसी समय न रहते हों ऐसा नहीं है। एक विभावके भाव और परिणाम हैं तथा एक स्वभावके भाव और परिणाम हैं। अतः सत्संग प्राप्त करें। यहाँ बैठे हैं तो कैसा काम होता है! सभीके मनमें ऐसा रहता है कि कुछ सुनें। किसने बुरा किया है ? प्रमाद
और आलस्य शत्रु हैं। भान नहीं है। गफलतमें समय बीत रहा है। क्या काम आयेगा? मात्र विचार ही। विचारके दो भेद हैं, एक सद्विचार और एक असद्विचार । सद्विचारसे आत्माकी मान्यता होती है। यह सब कल सुबह मिट जायेगा, हुए न हुए हो जायेंगे। महापुरुषोंने कहा है कि
"लयुं स्वरूप न वृत्तिनुं, ग्रहुं व्रत अभिमान;
ग्रहे नहीं परमार्थने. लेवा लौकिक मान."-श्री आत्मसिद्धि कहनेकी बात यह कि चेत जाइये । किसकी बात करनी है? आत्माकी, परकी नहीं। 'हुं कोण र्छ? क्याथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?' क्या है सच्चा स्वरूप? इस बातमें सुषुप्त न हो और जाग्रत हो तो चोर भाग जाते हैं । जागृत होना है, सावधान होना है। लिया सो लाभ । कल सुबहकी
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