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पत्रावलि-२
१३७ कहनेवाला कह देता है, परंतु मानना या नहीं मानना यह आपके हाथकी बात है। सत्संग, भक्तिमें भाव बढ़े, इस प्रकार सत्संगके वियोगमें भी मुमुक्षुको प्रवृत्ति करनी चाहिये।
२५ मार्गशीर्ष, सं. १९९२, ता. १४-११-३५ अनेक मुमुक्षु दूर-दूरसे आकर, परमकृपालुदेवकी भक्तिमें रंगकर आत्महित साध जाते हैं और आपको इतना समागम होने पर भी ऐसा क्या कारण है कि सत्संग समागम करने में इतना अधिक विघ्न आता है? धन, कुटुंब, काया आदिके लिये कुछ काम हो तो उसकी चिंता रखते हैं और देरसबेरसे उस कामको कर लेते हैं; तब इस आत्माका हित हो उस कामको करनेके लिये सत्संगकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती? या यह काम कम आवश्यक लगता है? या आत्माके हितका काम इस भवमें करना ही नहीं है ऐसा निश्चय कर रखा है या क्या सोच रखा है? धन, काया आदि पदार्थ तो कल सुबह राख होकर उड़ जायेंगे। कोई किसीका सगा नहीं है । स्व० माधवजी शेठ धनसंपत्तिमेंसे क्या साथ ले गये? धर्मके प्रति उन्हें जितना प्रेम अंत समयमें जागृत हुआ था, वही वे साथ ले गये और वही उनको अच्छी गतिमें ले गया। संसारकी प्रवृत्तिमें तो जीव अशुभ भाव कर अधोगतिमें जाना पड़े ऐसे कारण एकत्रित कर रहा है। उसमें जो कोई भी सत्पुरुषके वचन सुनकर ग्रहण करेगा, जागृत होगा और धर्मकी आराधना करेगा, वह सुखी होगा। जिसे सत्पुरुषका योग हुआ है, जिसने सत्पुरुषकी सेवा की है, उसको तो इस असार संसारमें पामर प्राणियोंकी भाँति उसीमें आसक्त रहना उचित नहीं है। सौ दो सौ रुपये मिलनेवाले हों तो जीव गाडीमें बैठकर मुंबई तक दौड़ा चला जाता है, किन्तु सत्संगमें जो अलभ्य लाभ मिलता है, जन्म-जरा-मरणसे छुटकर, मोक्षप्राप्तिके हेतभूत समकितका लाभ होता है ऐसे संयोगका जीवको अभी तक माहात्म्य ही नहीं लगा है। जीवको बोधकी कमी है और सत्संगके बिना बोधकी प्राप्ति नहीं होती, अतः बारंबार समागमका योग प्राप्त हो ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये । आपके निमित्तसे आपके माताजी, भाई आदि अनेक जीवोंको आत्महितका कारण प्राप्त हो सकता है। वह प्रमाद या मोहके कारण रुक रहा है, अतः जागृत होकर आत्माकी संभाल अब लीजियेगा।
विशेष क्या कहें? कालका भरोसा नहीं है। प्राण लिये या लेगा यों हो रहा है। अचानक काल आ पहुँचेगा और संसारके सब काम अधूरे छोड़कर अकेले जाना पड़ेगा। शरीरमें रोग, व्याधि प्रकट होंगे तब कोई नहीं ले सकेगा, सब ताकते रह जायेंगे और अकेले ही इस आत्माको दुःख भोगने पड़ेंगे। अतः कुटुंब आदिका प्रतिबंध कम कर सत्संग-समागममें चित्तवृत्ति विशेष लगे ऐसा सोचकर प्रवृत्ति करना उचित है।
चाहे जितने दुःख उठाने पड़े, धनकी हानि होती हो, अपमान होता हो तो भी सत्संग-समागम करते रहनेका अनुरोध है, इसे न भूलियेगा। हृदयमें गहरे उतरकर विचार कीजियेगा। यह जीव बिचारा मनुष्यभव हार न जाय इस प्रकार उसकी दया करनी चाहिये । ऐसा अवसर अन्य किसी भवमें मिलना अत्यंत दुर्लभ है अतः सावधान हो जायें।
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