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________________ १३८ उपदेशामृत २६ कार्तिक सुदी ७,सं.१९९२ ___ एक सद्गुरुकी दृढ़ शरण ग्रहण कर निर्भय हो जाना चाहिये। व्याधि, पीड़ा, परिषह-उपसर्ग चाहे जो आ पड़ें उन्हें धैर्य, समता, सहनशीलतासे शांतिपूर्वक सहन कर लेना चाहिये। ये सब जानेके लिये ही आते हैं। कर्म अनंतकालसे आते हैं और जाते हैं। कोई टिक नहीं पाये । नरकके दुःख भी जीवने अनंतबार भोगे हैं, किंतु आत्माका कोई प्रदेश भी न घिसा है न कम हुआ है। अतः किसीसे घबराना नहीं चाहिये। आये उससे दुगने आओ ऐसा कहनेसे अधिक आयेंगे नहीं तथा चले जाओ कहनेसे जायेंगे भी नहीं। जो चले गये हैं वे लौटकर फिर कभी आनेवाले नहीं हैं। अतः एक सद्गुरुका अवलंबन ग्रहण कर उनकी शरणमें जो होता है उसे देखते रहना चाहिये, घबराना नहीं चाहिये। मंत्रका स्मरण निरंतर करते रहना चाहिये। जब तक भान रहे तब तक स्मरणमें भाव रखें । ज्ञानीपुरुषने जैसा आत्मा जाना है वैसा ही मेरा आत्मा है। आवरणके कारण मुझे पता नहीं है, पर मैंने जिनकी शरण ग्रहण की है उन्होंने निःशंक रूपसे सत्य आत्माको जाना है, इस श्रद्धाको दृढ़तासे मृत्यु पर्यंत टिकाकर रखना चाहिये। इतनी दृढ़ता रहे तो कोई आत्माका बाल भी बाँका करनेमें समर्थ नहीं है। "धिंग धणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट?" २७ ता.२६-१-१९३६ सत्संग, सत्पुरुषार्थकी जीवको बहुत आवश्यकता है। 'बातें करनेसे काम नहीं होता, करना पड़ेगा। एक मरजिया सौको भारी होता है। उठो, खड़े हो जाओ। वार करे उसकी तलवार । तुम्हारी देरमें देर है। योग्यता लाओ। पात्रके बिना किसमें रखेंगे? योग्यता हो तो देर नहीं है। आत्मा ही करेगा। किये बिना छुटकारा नहीं है। जीवकी ही भूल है। मान्य करनेवालेकी बात है। "इसके मिलने, इसको सुनने और इस पर श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी बातका आत्मासे गुंजार होगा।" सत्पुरुषार्थ संबंधी, विनय और लघुता संबंधी, मरे हुएको जीवित कर दे ऐसा अमृत समान अत्युत्तम बोध सुनकर हृदयमें लिखकर रखना चाहिये। मीठी 'कुँईयाँका पानी है, जो पियेगा उसकी प्यास बुझेगी, भरकर रखेगा उसके काम आयेगा और प्रमादमें बह जाने देगा वह पछतायेगा, प्यासा मरेगा। यह जीव प्रमादमें गोते खाता रहता है, चेतता नहीं है, यह बड़ी भूल है। 'भरत, चेत!' "ज्ञान गरीबी गुरु वचन, नरम वचन निर्दोष, इनकूँ कभी न छांडिये, श्रद्धा, शील, संतोष." १. मूल गुजराती कहावत-'वातोओ वडा नहीं थाय.' २. मूल गुजराती पाठ-'मारे तेनी तरवार, तारी वारे वार! ३. मूल गुजराती पाठ 'वात छे मान्यानी।' ४. गुजराती मूल शब्द 'वीरडी' है जिसका अर्थ होता है-नदी या तालाबके सूखे भागमें पानीके लिये खोदा गया खड्डा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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