SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ उपदेशामृत साधन अनंतकालसे प्राप्त करता आया है और क्रियाकाण्डमें प्रवृत्ति करता आया है, किंतु इससे जन्ममरण दूर नहीं हो सकते। किंतु पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ ऐसा अपूर्व यह समकित है, आत्मश्रद्धा है। उसे प्राप्त करनेकी भावना, तीव्र जिज्ञासा बारंबार करनी चाहिये । आत्माकी पहचान होने पर ही कल्याण है और तभी मिथ्यात्वका नाश होगा और मोक्षका मार्ग प्रशस्त होगा। स्वच्छंद मोक्षमार्गको रोकनेवाला, बंद करनेवाला किवाड़ है। उसे दूर करनेका साधन भी आत्मज्ञान और आत्मभावना है। ___ आत्मार्थके लक्ष्यसे, आत्मभावनासे जितना प्रवर्तन, भाव होगा, उतना जीवन सार्थक है, शेष सब तो माया-प्रपंचमें बहा जा रहा है ऐसा सोचकर, वैराग्य-उपशमकी वृद्धि हो, मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ इन चार भावना सहित व्यवहार हो ऐसा पुरुषार्थ कर्तव्य है। और सत्संगकी भावना बढ़ती रहे वैसा करना उचित है। बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, छह पदका पत्र, आत्मसिद्धि आदि भक्ति-स्मरणमें नित्य नियमित अमुक समय बितानेका लक्ष्य रखें। २४ मार्गशीर्ष सं. १९९२, ता. १४-११-३५ इस दुषमकालमें इस मनुष्यभवका आयुष्य बहुत अनिश्चित है। कालका भरोसा नहीं है और मायाका अंत नहीं है। जीव यों के यों सब काम अधूरे छोड़कर परभवसे आया है, किन्तु पूर्वमें जाने-अनजाने कुछ पुण्य-बंध हुआ होगा जिसके फलस्वरूप यह मनुष्यभव, उत्तम कुल, नीरोगी काया, निश्चिंत आजीविका चले ऐसे साधन, सत्पुरुषका योग और परमकृपालुदेव जैसे सच्चे पुरुषकी शरण, स्मरण आदिके संयोग मिल गये हैं। जीव इतनी उच्च स्थितिमें आया है फिर भी प्रमाद करेगा तो सब सामग्री चली जानेमें समय नहीं लगेगा। छोटा बालक भी खाट या पलंगसे गिरनेसे डरता है और बचनेका प्रयत्न करता है। किंतु यह मूर्ख जीव इस उच्च दशासे गिरकर अधोगतिमें कहाँ फँस जायेगा, इसका उसे भय नहीं है, न सावधान ही होता है। मनुष्यभव यों ही चला जायेगा तो फिर क्या दशा होगी इसका जीवको अभी भी भान नहीं है। चार गतिमें तथा उसमें भी नरक-तिर्यंचमें कितने अधिक दुःख हैं इसे मृगापुत्रके चरित्रमें परमकृपालु देवने 'भावनाबोध में कितना अधिक विस्तारसे लिखा है? फिर भी जीवको सत्पुरुषके वचनकी सत्यता हृदयमें चुभती नहीं, त्रास नहीं होता। यह सब मोहनीयकर्मका छाक है। सत्संग-समागममें बोध श्रवण करनेकी, जोरदार थप्पड़ लगनेकी आवश्यकता है, तभी जीव जागृत हो सकता है। ___चक्रवर्ती जैसे छह खंडके राज्यका और छियानवे हजार स्त्रियोंका त्याग कर आत्महित करनेके लिये भिखारीकी भाँति अकिंचन होकर चल पड़े, उनमें कितना वैराग्य होगा? और यह जीव तो तुच्छ वस्तुओंमें वृत्ति पिरोकर सुखी होना चाहता है; तो यह सुखका मार्ग है या महापुरुषों द्वारा आचरित मार्ग महासुखकारी है? इस कथन पर गहन चिंतन करना चाहिये। सत्संगके अभावमें अनादि मोहका बल जीवको कर्मबंधनके कारणोंमें फँसा देता है और जीव उसमें आनंद मानता है। किंतु उसके प्रति विष, विष और विषकी दृष्टि रखकर, सत्संगकी भावना रखकर जीना उचित है और अवसर मिलने पर अवश्य ही सत्संग विशेष विशेष उत्साहसे करते रहना योग्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy