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पत्रावलि - २
१३५
परमकृपालुदेवकी ही शरण, आश्रय, निश्चय ग्रहण करो और आज तक जो कुछ किया, जो कुछ माना, जो कुछ उपदेश दिया, जो जो कल्पनाएँ कीं, वह सब मेरी भूल थी, स्वच्छंद था, कल्पना थी, नासमझी थी, अज्ञान था । उसका भारी खेदपूर्वक पूर्ण पश्चात्ताप कर, उससे वापस लौटकर, ज्ञानीसे क्षमा-याचना कर आत्माको निःशल्य करो। अब तो मुझे एकमात्र परमकृपालुदेवकी ही शरण हो, उन्हींकी आज्ञामें निरंतर प्रवृत्ति हो । उन्होंने जिस स्वरूपका अनुभव किया है, वही मेरा स्वरूप है; अन्य देहादि संबंधोंमें अपनेपनकी कल्पना मिथ्या है, ऐसी समझ और श्रद्धा करनी चाहिये । जीव स्वयं ही जब ऐसा करेगा तभी मुक्ति होगी ।
सच्ची श्रद्धा आने पर सच्चा वैराग्य आता है और ज्ञानियोंने देहादिको अनित्य आदि कहा है वह जीवके विचार में, समझमें आता है । सच्ची श्रद्धाके बिना सच्चा प्रेम उत्पन्न नहीं होता और सच्चे प्रेम बिना वस्तुकी प्राप्ति असंभव है । सच्ची श्रद्धा सहित परमकृपालुदेवकी भक्तिमें चित्तको संलग्न रखें, उसीमें तल्लीन बनें ।
यह असातावेदनीय और सातावेदनीय तो कर्मानुसार है । आत्मस्वरूपका नाश करनेके लिये वेदनीय समर्थ नहीं है तो फिर उसकी चिंता या विकल्प क्यों करें ? क्यों न परम भक्तिमें भावको बढ़ाकर सभी जन्ममरण आदि दुःखोंसे सदाके लिये मुक्त हो जायें ? खेद या आर्त्तध्यान करनेसे तो वह वेदनीय जीवको नवीन कर्मबंधका हेतु बनती है, जिन्हें भविष्यमें भोगना पड़ेगा । अतः समझदार व्यक्तिको अपने आत्मा पर दया कर, क्षमा और धैर्यसे अपने भाव सुधार कर, इस प्रतिकूल प्रसंगसे लाभ क्यों न उठाना चाहिये ? यह मित्र जैसे लगनेवाले पर वास्तवमें बलवान शत्रुके समान देहादि संयोगों में कुछ भी प्रीति करना योग्य है ही नहीं। उधरसे अपने भावोंको मोड़कर परमकृपालुदेव द्वारा उपदिष्ट उपशम और वैराग्यमें तथा परमकृपालुदेवकी अपूर्व परम आज्ञाकी आराधनामें, भक्तिमें, शरणमें, आश्रयमें एकता करना उचित है ।
परमकृपालुदेवकी श्रद्धा जो हमारे कहनेसे करेंगे उनका कल्याण होगा, ऐसा जो कहा था तथा संतके कहनेसे परमकृपालुदेवकी आज्ञा मुझे मान्य है, यों प्रतिज्ञा पूर्वक सभीने परमकृपालुदेवके समक्ष कहा था उसे याद कर, श्रद्धा जितनी दृढ़ हो उतनी करनी चाहिये। हाथीके पाँवमें सबके पाँव समा जाते हैं, वैसे ही परमकृपालुदेवकी भक्तिमें सर्व ज्ञानियोंकी भक्ति आ जाती है; अतः भेदभावकी कल्पना दूर कर, जो आज्ञा हुई है उसके अनुसार 'वाळ्यो वळे जेम हेम' (स्वर्णकी तरह चाहे ज्यों मोड़ा जा सके ) यों अपने भाव मोड़कर एक पर आ जाना योग्य है ।
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ता. ३१-१०-१९३५
माया सब मिथ्या है। मेरे पास इतना धन है, इतना पुत्र-परिवार है, इतना अधिकार है जिससे अब मुझे कुछ डरने जैसा नहीं है- मुझे क्या कमी है ? यों जीव मानता है। तथा अहंभाव -ममत्वभाव सहित दान, दया, तप आदि धर्म करता है । पर यह सब तो भैंसेको खेतमेंसे निकालनेके लिये साठा लेकर मारने जैसा है। भैंसा कहता है कि ऐसे तो मैं बहुत चबा गया हूँ। वैसे ही यह जीव मायाके
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