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उपदेशामृत साता-असाता तो देहका स्वभाव है, उन्हें अपने मानकर यह जीव उनकी प्राप्ति-अप्राप्तिके विचारों में
और भावना करनेमें, आर्तध्यान कर अपना बुरा करनेमें कुछ कसर नहीं रखता। ज्ञानियोंने तो सभी संयोगोंको, देहादि और कुटुंब आदि सर्व संसार-संबंधोंको पर, पुद्गलका, कर्मरूप, असार, अध्रुव और दुःखमय ही कहा है। जो ज्ञानीका भक्त है उसे तो ज्ञानीके वचन मान्य ही होने चाहिये और इससे उसे साता-असाता दोनों समान हैं। असाता तो विशेष अनुकूल है कि जहाँ संसारमायाका, परपदार्थोंके संयोगस्वरूपका प्रतिबंधरहित स्पष्ट दर्शन होता है कि जिससे जीव उसके स्वरूपका सहज विचार कर सके।
सभी ज्ञानीपुरुषोंने अनुभवपूर्वक इस संसारको दुःखमय जानकर उससे निवृत्त होनेका ही मार्ग ग्रहण किया है, इसके लिये अत्यंत पुरुषार्थकर विजय प्राप्त की है और यही उपदेश दिया है। अनेक भक्तोंने, संसारके दुःख भले ही आवे या जावें, पर प्रभुका विस्मरण न हो, यही माँगा है। श्री ऋभुराजाने तो भगवानके दर्शन होते ही यह माँग की कि इस राज्यलक्ष्मीका मुझे पुनः स्वप्नमें भी दर्शन न हो। यह सब संसारकी असारताको ही सूचित करता है, जिस पर विचार कर जीवको उससे उदासीन होना चाहिये।
महान महान पुरुषोंने भी भारी उपसर्ग और परिषहके प्रसंगमें चलित न होकर, खेद न कर, समभावको ही धारण किया है। संसार असार, पररूप, अपने आत्मस्वरूपसे बिलकुल भिन्न है, ऐसा जानकर निज शुद्ध आत्मस्वरूपमें ही स्थित हुए हैं।
मघा(नक्षत्र)की वर्षाके समान बोधप्रवाह बह रहा है, पर उसमेंसे एक-आध लोटा भी पानी पिया नहीं, भरकर भी नहीं रखा कि बादमें पिया जाय। सारा पानी क्यारीमें जानेके बदले बाहर बह गया। कहनेवाला कह देता है और जानेवाला चला जाता है। बार बार कहने पर भी, समझाने पर भी अपनी मति-समझ-आग्रहको नहीं छोड़ता जिससे हमारा कथन ग्रहण नहीं होता। जीवने अपनी दृष्टिसे ज्ञानीपुरुषको पहचाना है, और अपनी समझसे 'यह ज्ञानी है, यह ज्ञानी है' ऐसा मानकर ज्ञानियोंकी, ज्ञानियोंके मार्गकी मान्यताकर प्रवृत्ति करता है। इस विपरीत समझसे "मैंने ज्ञानीका मार्ग प्राप्त किया है, मैं ज्ञानीकी सच्ची भक्ति करता हूँ, मैं जैसा व्यवहार, प्रवृत्ति कर रहा हूँ वह ठीक है" यों सोचकर अपनेमें भी ऐसी ही कुछ मान्यता कर, उस मान्यताके आधार पर अन्य जीवोंको भी वैसा ही उपदेश देता है, यह सब अज्ञान है। अज्ञान संसारमें भटकानेवाला है। अभी भी मनुष्यदेह है, समझशक्ति है तब तक अवसर है। सम्यक् प्रकारसे ज्ञानीका कहना मान लेनेसे ही आत्महित होता है।
हमारे हृदयमें तो मात्र कृपालुदेव ही हैं, उनका ही रमण है। हमारी तो यही श्रद्धा और लक्ष्य है। हमारे समागममें जो जिज्ञासु आते हैं उन्हें हम तो यही मार्ग बताते हैं कि परमकृपालुदेवकी ही आज्ञा मान्य करो, उनकी ही श्रद्धा करो; उन्होंने जो स्वरूप जाना, अनुभव किया, वही सच्चा है, वही मेरा स्वरूप है; इस प्रकार उस पुरुषके वचनसे श्रद्धापूर्वक मान्य करो और उन्हींकी भक्तिमें निरंतर रहो, अन्य कुछ भी कल्पना न करो।
ये परपदार्थ, उनके संयोग, ये तुम्हारे नहीं हैं। उन्हें अपने आत्मस्वरूपके समान न मानो; परंतु परमकृपालुदेव-कथित यथार्थ आत्मस्वरूपको पहचानो तो कल्याण होगा।
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