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________________ [१८] खण्ड पर पधारनेकी विनती की। श्रीमद् ऊपर गये। श्रीमद्का गृहस्थ वेश और अपना मुनिवेश होनेपर भी स्वयंको उनसे छोटा मानकर श्री लल्लजीने तीन साष्टांग दण्डवत् नमस्कार किये। फिर श्रीमद्ने श्री लल्लजीसे पूछा, “आपकी क्या इच्छा है?" श्री लल्लजीने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा, "समकित (आत्माकी पहचान) और ब्रह्मचर्यकी दृढ़ताकी मेरी माँग है।" श्रीमद् थोड़ी देर मौन रहे, फिर कहा, “ठीक है।" पश्चात् श्री लल्लजी स्वामीके दाँये पाँवके अंगूठेको पकड़कर श्रीमद्ने ध्यानसे देखा। फिर नीचे उतरे और रास्तेमें श्री अंबालालभाईको बताया कि श्री लल्लजी पूर्वके संस्कारी पुरुष हैं। दूसरे दिन श्री लल्लुजी, श्रीमद्के समागमके लिए श्री अंबालालभाईके घर गये। वहाँ एकान्तमें श्रीमद्ने उनसे पूछा, “आप हमें सन्मान क्यों देते हैं?" श्री लल्लजी स्वामीने कहा, “आपको देखकर अत्यंत हर्ष और प्रेम उत्पन्न होता है, मानो आप हमारे पूर्व भवके पिता हों इतना अधिक भाव पैदा होता है, किसी प्रकारका भय नहीं रहता। आपको देखते ही आत्मामें ऐसी निर्भयता आ जाती है।" श्रीमद्ने पूछा, “आपने हमें कैसे पहचाना?" श्री लल्लजीने कहा, "अंबालालभाईके कहनेसे आपके संबंधमें जाननेमें आया। हम अनादि कालसे भटक रहे हैं अतः हमारी संभाल लीजिये।" श्रीमद्ने 'सूयगडांग' सूत्रमेंसे थोड़ा विवेचन किया। सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा आदिके विषयमें उपदेश दिया। श्री लल्लजी स्वामी प्रतिदिन श्रीमद्के पास सत्संगके लिये आते । जब तक श्रीमद् खंभातमें रहे तब तक सातों ही दिन वे उनके पास गये। एक दिन श्री लल्लजीस्वामीने श्रीमद्से कहा, "मैं ब्रह्मचर्यकी दृढ़ताके लिए पाँच वर्षसे एकांतर उपवास करता हूँ और कायोत्सर्ग ध्यान भी करता हूँ, फिर भी मानसिक पालन बराबर नहीं हो पाता।" श्रीमद्ने कहा, "लोकदृष्टिसे नहीं करना चाहिए, लोगोंको दिखानेके लिए तपश्चर्या नहीं करनी चाहिए। किन्तु स्वादका त्याग हो तथा ऊनोदरी तप (पूरा पेट भरकर न खाना) हो इस प्रकार आहार करें। स्वादिष्ट भोजन अन्यको दे देवें।" श्री लल्लुजी स्वामीने फिर कहा, "मैं जो कुछ देखता हूँ वह भ्रम है, झूठा है ऐसे देखता हूँ, ऐसा अभ्यास करता हूँ।" श्रीमद्ने कहा, “आत्मा है, ऐसा देखा करें।" फिर श्रीमद्का मुंबई जाना हुआ उसके बाद श्री लल्लुजी स्वामी, भाईश्री अंबालालके द्वारा श्रीमद्के साथ पत्रव्यवहारसे ज्ञानवार्ताका लाभ प्राप्त करते। सं.१९४७में वटामणमें चातुर्मास किया और सं.१९४८ में साणंदमें चातुर्मास पूरा करके लल्लजी, श्री देवकरणजीके साथ सूरत पधारे। तब सूरतके निवासी किन्तु मुंबईमें व्यापार करनेवाले व्यापारी भाइयोंने, श्री देवकरणजी स्वामीके व्याख्यानसे आकर्षित होकर उन्हें मुंबईमें चातुर्मास करनेकी विनती की, जिससे सं.१९४९का चातुर्मास मुंबईमें निश्चित हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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