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________________ [१९] श्री लल्लुजी स्वामीके भाव तो श्रीमद् राजचंद्रके समागमके लिए रहते थे और सं.१९४९का चातुर्मास मुंबईमें करनेका नक्की हुआ, अतः मुंबई पहुँचनेके बाद श्रीमद्के समागमके लिए वे उनकी दुकानपर गये। श्रीमद्ने पूछा, “आपको इस अनार्य जैसे देशमें चातुर्मास क्यों करना पड़ा? मुनिको अनार्य जैसे देशमें विचरण करनेकी आज्ञा थोड़े ही होती है ?" । श्री लल्लजीने कहा, “आपके दर्शन-समागमकी भावनासे यहाँ चातुर्मास किया है।" श्रीमद्ने पूछा, “यहाँ आनेमें आपको कोई अड़चन करता है? श्री लल्लुजी स्वामीने कहा, “नहीं, हमेशा यहाँ आऊँ तो घण्टे भरका समागम मिलेगा?" श्रीमद्ने कहा, "मिलेगा।" श्री लल्लजी यथावसर श्रीमद्के समागमके लिए उनकी दुकानपर जाते। उन्हें देखकर श्रीमद् दुकानसे उठकर पासके एक अलग कमरे में जाकर 'सूयगडांग' सूत्र आदिमेंसे उन्हें सुनाते, समझाते । एक बार श्री लल्लजीने श्रीमद्से उनके चित्रपटकी माँग की, किन्तु उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। पुनः पुनः आग्रह किया तब निम्न गाथा एक कागजपर लिखकर दी “संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं दटुं भयं बालिसेणं अलंभो । __एगंतदुक्खे जरिएव लोए सक्कम्मणा विप्परियासुवेइ॥' भावार्थ-हे जीवो! तुम बोध प्राप्त करो, बोध प्राप्त करो। मनुष्य भव मिलना बहुत ही दुर्लभ है, ऐसा समझो। अज्ञानसे सद्विवेककी प्राप्ति दुर्लभ है, ऐसा समझो। सारा लोक केवल दुःखसे जल रहा है, ऐसा जानो और अपने-अपने उपार्जित कर्मों द्वारा इच्छा नहीं होनेपर भी जन्ममरणादि दुःखोंका अनुभव करते रहते हैं, उसका विचार करो।" __ थोड़े दिनोंके बाद 'समाधिशतक में से १७ गाथा तक श्रीमद्ने श्री लल्लजीको पढ़कर सुनाया तथा वह पुस्तक पढ़ने-विचारनेके लिए दी। पुस्तक लेकर सीढ़ी तक गये ही थे कि श्री लल्लजीको वापस बुलाकर 'समाधिशतक' के पहले पृष्ठ पर निम्न अपूर्व पंक्ति लिख दी ॐ आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।" एक दिन श्रीमद्ने पूछा, “ 'समाधिशतक'का वाचन चल रहा है?" श्री लल्लजी स्वामीने कहा, "अभी तो मुंबईके कोलाहलमें ठीक नहीं रहेगा, ऐसा मानकर सँभालकर बाँध रखा है। यहाँसे विहार करके जायेंगे तब उसके अभ्यासमें लग जायेंगे।" चातुर्मास पूरा होने आया तब एक दिन श्री लल्लजीने श्रीमद्से पूछा, “यह सब मुझे रुचिकर नहीं लगता, एकमात्र आत्मभावनामें निरतंर रहूँ ऐसा कब होगा?" श्रीमद्ने कहा, "बोधकी आवश्यकता है।" श्री लल्लजीने कहा, “बोध दीजिए।" श्रीमद् मौन रहे। यों बारंबार श्रीमद् मौन रहनेका बोध देते, और इसीमें विशेष लाभ है ऐसा बताते । इस परसे श्री लल्लुजीने मुंबई चातुर्मास पूरा कर सूरतकी ओर विहार किया तबसे तीन वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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