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________________ [१७] ध्यान आदि भी गुरुके साथ करते । रात्रिमें हरखचंदजी गुरु एक-दो घण्टे 'नमोत्थुणं' का कायोत्सर्ग करते तब उनके साथ श्री लल्लजी भी कायोत्सर्ग करते। किन्तु कामवासना निर्मूल नहीं हुई, जिससे गुरुको बार-बार पूछते । तब गुरु जप तप आदि क्रिया बताते और उसे वे करते रहते । किन्तु जब तक अपनी विकारवृत्ति दूर न हो तब तक उन्हें उस क्रियासे संतोष न होता। स्वयं अनेक बार कहते थे कि उपाश्रयके चबूतरे पर बैठकर स्तवन सज्झाय गाते और मनमें लोगोंको सुनानेका भाव रहता, परंतु उस समय अन्तर्वृत्तिकी समझ नहीं थी। ___ सं.१९४६ में खंभात स्थानकवासी संघके संघवी लालचंद वखतचंद वकीलके दत्तक पुत्र अंबालालभाई तथा माणेकचंद फतेहचंदके पुत्र त्रिभोवनभाई अहमदाबादमें छगनलाल बेचरदासके कुटुम्बके विवाह प्रसंगमें गये थे। वहाँ उनका श्री जूठाभाई उजमशीभाईसे समागम हुआ। उनके संगसे उन्हें इस बातकी जानकारी हुई कि श्रीमद् राजचंद्र आत्मज्ञानी पुरुष हैं और उनके उपदेशसे कल्याण हो सकता है। श्रीमद् राजचंद्रने श्री जूठाभाईको जो पत्र लिखे थे उन पत्रोंकी नकल उन्होंने कर ली और खंभात पधारनेके लिए श्रीमद् राजचंद्रको अनेक पत्र लिखे; पर जब कोई उत्तर नहीं मिला तो स्वयं उनके वहाँ जानेकी इच्छा प्रदर्शित करता हुआ अंतिम पत्र लिखा। तब उसका उत्तर मिला कि थोड़े दिनोंमें वे स्वयं खंभात पधारेंगे। एक दिन श्री लल्लजी, दामोदरभाई नामक पाटीदारके साथ श्री भगवतीसूत्रके पन्ने नीचे पढ़ रहे थे। उपाश्रयके ऊपरके खण्डपर श्री हरखचंदजी महाराज उसी सूत्रपर व्याख्यान दे रहे थे। श्री भगवतीसूत्रमें ऐसा अधिकार आया कि भवस्थिति परिपक्व हुए बिना किसीका मोक्ष नहीं हो सकता। इस विषय पर श्री लल्लजी, दामोदरभाईसे पूछ रहे थे कि भवस्थिति परिपक्व होनेपर ही मोक्ष होता है तो फिर साधु बनने और कायक्लेश आदि क्रियाएँ करनेकी क्या आवश्यकता है? इतनेमें अंबालालभाई दो-तीन युवकोंके साथ दूर कुछ वाचन करते दिखायी दिये। श्री लल्लजीने उनसे कहा, "व्याख्यानमें क्यों नहीं जाते? ऊपर जाओ या यहाँ आकर बैठो।" तब वे ऊपर जानेके बजाय वहाँ आकर बैठे और उपरोक्त विषयपर थोड़ी चर्चा हुई, किन्तु संतोषकारक उत्तर न मिला। फिर हरखचंदजी महाराजसे पूछनेका निश्चित किया गया। इस पर अंबालालभाईने कहा कि “यह प्रश्न तो क्या, पर अनेक आगम जिन्हें हस्तामलकवत् हैं ऐसे पुरुष श्रीमद् राजचंद्र हैं। उनके पत्र हम पढ़ रहे थे। वे यहाँ खंभातमें पधारनेवाले हैं।" यह बात सुनकर तथा पत्र पढ़कर श्री लल्लजीको श्रीमद् राजचंद्रसे मिलनेकी तीव्र भावना जागृत हुई। वे पधारें तब उन्हें अवश्य उपाश्रयमें लेकर आनेकी विनती भी की। सं.१९४६ के चातुर्मासमें दिवालीके दिनोंमें श्रीमद् राजचंद्र खंभात पधारे और अंबालालभाई आदिके आग्रहसे उपाश्रयमें भी गये । हरखचंदजी महाराजने सुना था कि श्रीमद् राजचंद्र शतावधानी हैं, अतः उसे कर दिखानेके लिए विनती की। किन्तु उन्होंने सबके समक्ष ऐसे प्रयोग करने बंद कर दिये थे, फिर भी सभीके आग्रहसे तथा हितका कारण जानकर उपाश्रयमें थोड़े प्रयोग कर दिखाये । फिर हरखचंदजी महाराजके साथ थोड़ी शास्त्रसंबंधी ज्ञानवार्ता हुई, जिससे प्रभावित हो उन्होंने सबके समक्ष श्रीमद्की बहुत प्रशंसा की। अतः श्री लल्लुजीने अपने गुरुजीसे उनके पास शास्त्रका मर्म समझनेकी आज्ञा माँगी, और गुरुजीने अनुमति दी। फिर श्री लल्लुजीने श्रीमद्से उपाश्रयके ऊपरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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