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________________ १२२ उपदेशामृत होता है तब ऐसा संयोग मिल जाता है कि जो रोग होता है वैसी ही दवा भी मिल जाती है । हम तो, सेवाबुद्धिसे जो ठीक लगता है वह बताते या करते हैं, किन्तु हमसे कुछ हो नहीं सकता । क्या करने योग्य है, इसका भान भी हमें नहीं है । परमकृपालुदेवने कहा है "वर्तमान आ काळमां, मोक्षमार्ग बहु लोप; विचारवा आत्मार्थीने, भाख्यो अत्र अगोप्य. " अनेक मतमतांतरमें और अनेक नामधारी क्षयोपशमी पुरुष ऐसा मानते हैं कि उन्होंने मोक्षमार्गको समझ लिया है और उसका उपदेश देकर अन्यको मोक्षमार्ग पर आरूढ करते हैं ऐसा मानते हैं। किन्तु इन सत्पुरुषको तो ऐसा लगा कि ऐसे कालमें हमारा जन्म कैसे हुआ ? आत्मज्ञानी पुरुषोंकी तो अत्यंत दुर्लभता है, फिर भी मध्यस्थतासे आत्मज्ञानकी शोध करनेका निर्णय किया हो वैसे, या सरलतासे सच्ची बातको ग्रहण करें ऐसे जीवात्मा भी बहुत कम दिखाई दिये । मात्र शुष्कज्ञानी अर्थात् ज्ञानका दिखावा कर बड़प्पन मान बैठनेवाले या मात्र क्रियाजड़ अर्थात् जिन्हें ज्ञानका माहात्म्य नहीं है किन्तु एकांत बाह्याचारको ही मोक्षमार्ग माननेवाले ऐसे अनेक पुरुष इस कालमें, मानो धर्मका ठेका उनके पास ही हो ऐसा मान बैठे हैं । वे सत्पुरुष और सत्पुरुषके मार्गके प्रति द्वेष रखनेवाले होते हैं । ऐसे विकराल कालके पंजेसे बचानेवाले एक परमकृपालु श्रीमद् राजचंद्र प्रभु ही हैं । उन्होंने इस कालमें हम पर उपकार किया है। उनके उपकारको पूरा-पूरा समझनेकी बुद्धि भी हममें नहीं है, तो उसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ? इस कालमें इस मनुष्यभवको सफल बनानेका यदि कोई मुख्य साधन है तो वह परमकृपालुदेव पर परम प्रेम और निष्काम भक्ति तथा उनके वचन पर श्रद्धा और संतसमागममें उनके आशयको समझनेकी तीव्र इच्छा ही है। चंदनके वनमें जैसे आसपासके अन्य वृक्ष भी सुगंधित हो जाते हैं उनमें सुगंध चंदनकी ही होती है, वैसे ही सत्पुरुष श्री परमकृपालुदेवके बोधसे जिन्हें सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई है, उनके पास उस परमपुरुषका ही सत्य बोध है और वही आत्माको हितकारी है। जो-जो वस्तु सत्पुरुषके मुखसे सुनी हो, अवधारण की हो, अनुभव की हो, उसीका वे उपदेश देते हैं और उसका ही उन्हें माहात्म्य लगा है। जिस वस्तुका मूल सत्पुरुष नहीं और जो मात्र कल्पनाके आधार पर टिकी है, वह चाहे जितनी मनोहर लगती हो, हमारे चित्तको प्रसन्न करती हो, किन्तु यदि कल्पनाको पुष्ट करती है तो उसे विषके समान समझकर छोड़ देना चाहिये । परमकृपालुदेवने कहा है कि "जहाँ कलपना - जलपना, तहाँ मानुं दुःख छांय; मिटे कलपना - जलपना, तब वस्तू तीन पाई." अतः सत्पुरुषके आधारसे जीना ही कल्याणरूप है । उनकी शरण कल्पवृक्षकी छाया है, वहाँ दुःख नहीं है । शेष सर्वत्र तीनों लोकमें तो दुःख ही भरा है । यह शरण अनन्य भावसे हमकोआपको सदैव रहे यही परमकृपालुदेवसे प्रार्थना है जी । पुनश्च - हे प्रभु! यथातथ्य स्वरूप क्षायक सम्यक्त्व है । वह जिसे है, जिसे प्रगट प्रत्यक्ष है उसकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, भाव हुआ हो उसे दर्शन कहते हैं । परोक्ष दर्शन मिथ्यात्वी और समकिती दोनोंको होता है, पर उसे दर्शन नहीं कहते । विशेषतः श्रद्धा ही दर्शन है, वही समकित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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