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________________ पत्रावलि-२ १२१ उसे यह सोचनेका अवकाश भी नहीं मिलता कि मनुष्यभव प्राप्त कर उसे क्या करना चाहिये और क्या कर रहा है? परंपरासे कुलधर्म आदिके आग्रहमें प्रवृत्ति हुई हो उसमें कितना कल्याण है और सत् वस्तुका माहात्म्य कैसा होता है? जिसे सत् प्राप्त हुआ हो उसकी दशा कैसी होती है? इस पर विचार करनेके लिये सत्संग-समागमके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। सत्संग संसार-रोगका नाश करनेकी परम औषधि है। कालका भरोसा नहीं है। प्राण लिये या लेगा यों हो रहा है, काल सिरपर मँडरा रहा है। फिर यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है, यह विचारणीय है जी। श्री ऋषभदेवजी भगवानने अट्ठानवे पुत्रोंको उपदेश दिया वहाँ कहा है कि___ "हे जीवों! आप समझें, सम्यकप्रकारसे समझें। मनुष्यभव मिलना बहुत दुर्लभ है, और चारों गतियोंमें भय है ऐसा जानें। अज्ञानसे सद्विवेक पाना दुर्लभ है, ऐसा समझें। सारा लोक एकांत दुःखसे जल रहा है, ऐसा जानें, और 'सब जीव' अपने अपने कर्मोंके कारण विपर्यासताका अनुभव करते हैं, इसका विचार करें।" । ___“जिसका सर्व दुःखसे मुक्त होनेका अभिप्राय हुआ हो वह पुरुष आत्माकी गवेषणा करे, और आत्माकी गवेषणा करनी हो, वह यमनियमादिक सर्व साधनोंका आग्रह अप्रधान करके सत्संगकी गवेषणा करे, तथा उपासना करे। सत्संगकी उपासना करनी हो वह संसारकी उपासना करनेके आत्मभावका सर्वथा त्याग करे। अपने सर्व अभिप्रायका त्याग करके, अपनी सर्व शक्तिसे उस सत्संगकी आज्ञाकी उपासना करे । तीर्थंकर ऐसा कहते हैं कि जो कोई उस आज्ञाकी उपासना करता है, वह अवश्य सत्संगकी उपासना करता है। इस प्रकार जो सत्संगकी उपासना करता है, वह अवश्य आत्माकी उपासना करता है, और आत्माका उपासक सर्व दुःखसे मुक्त होता है।"-ऐसा परमकृपालुदेवने भी कहा है जी। यह जीव अपनी कल्पनासे अज्ञान-मिथ्यात्वके कारण सत्संग सत्पुरुषके बोधको अपनी मतिकल्पनासे समझकर झूठेको-मिथ्याको सच्चा मानकर, श्रद्धा कर संतोष मानता है। किन्तु सत्संगमें सत्पुरुषके वचन प्रचुरतासे समझमें आयें तो इस जीवको अंतर्मुहूर्तमें समकित होता है और मनुष्यभव सफल होता है। ऐसा योग रत्नचिंतामणितुल्य मनुष्यभव प्राप्त होना दुर्लभ है। सब अनंत बार मिला है, एक समकित नहीं हुआ। अतः जीव कौड़ीके लिये रत्न खोने जैसा करता है, इस पर विवेकी पुरुषको विचार करना चाहिये । अधिक क्या लिखें? विवेकी पुरुषको सावधान होने जैसा है जी। पुनः ऐसा संयोग नहीं मिलेगा। यदि जीव इस भवमें एक सत्पुरुषके बोधके बीजरूप सम्यक्त्वको प्राप्त करे तो आधि, व्याधि, जन्ममरणके अनंत भव छूट जाते हैं जी। __ ॐ शांतिः शातिः शांतिः ** श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता. ३-११-३२ तत् सत् ___ जब तक असाताका उदय है, तब तक अकसीर दवाओंका भी असर नहीं होता। फिर रोग कुछ दूसरा होता है और दवाई कुछ अन्य प्रकारकी ही दी जाती है। जब साताका उदय होनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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