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पत्रावलि-२
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास तत् सत्
पौष वदी ७, बुध, १९८९ देवको भी दुर्लभ ऐसा यह मनुष्यदेह जीवको अनेक भवोंके पुण्यके संचयसे प्राप्त हुआ है। इस देहसे सम्यक्त्वप्राप्तिरूप कमाई हो तो इस देहका मूल्यांकन किसी प्रकार नहीं हो सकता ऐसा अमूल्य उसे मानना चाहिये । क्योंकि इसकी एक पलको भी चिंतामणि रत्नसे भी अधिक मूल्यवान ज्ञानियोंने माना है। परंतु यदि जीव ऐसे मनुष्य भवके वर्ष विषयादिमें बिताये तो संपूर्ण भवका मूल्य फूटी कौड़ीका भी नहीं है। कालका भरोसा नहीं है और संसारके काम कभी पूरे होनेवाले नहीं है। जीव अकेला आया है और अकेला जायेगा। मेरा मेरा करके इकट्ठा किया सब कुछ यहीं पड़ा रह जायेगा, ऐसा सोचकर सत्संग, भक्ति, स्मरण, सत्पुरुषके वचनोंका विचार और सदाचारमें चाहे जैसे भी अधिक समय बीते वैसा करना चाहिये जी। ऐसा अवसर बार बार नहीं मिलेगा। अनमोल क्षण बीत रहा है। यह अवसर चूकने योग्य नहीं है, सावधान होने जैसा है। यदि ऐसी उत्तम सामग्री पाकर भी जीव अपने स्वरूपको समझनेका कार्य न करे तो फिर कौनसे भवमें करेगा? मैत्री भावना, प्रमोद भावना, करुणा भावना और मध्यस्थ भावना करनेसे जीवमें पात्रता आती है। वही कर्तव्य है जी।
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माघ सुदी ११, सोम, १९८९ संत-समागम, सत्संग अपूर्व लाभका कारण है।
देव भी मनुष्यभवकी इच्छा करते हैं। ऐसी दुर्लभ यह मनुष्यदेह मिली है, उसका वास्तविक माहात्म्य तो सत्पुरुष ही समझ पाये हैं। इसलिये उन्हें ऐसे दुर्लभ भवकी एक पल भी रत्नचिंतामणिसे अधिक मूल्यवान लगती है और मान-पूजा या विषय-कषायके निमित्तोंको विष समान समझकर, लोकलाजको तृणवत् मानकर, आत्माकी पहचान हो, आत्माका पोषण हो उसके लिये मरजिया होकर वे पुरुषार्थ करते हैं। जीवने अपनी समझके अनुसार पुरुषार्थ करनेमें कुछ कमी नहीं रखी है। मेरु पर्वत जितना ओघा मुँहपत्तीका ढेर लग जाये इतनी बार चारित्र लेकर कष्ट उठाये हैं, फिर भी परिभ्रमण अभी तक चल रहा है, तो अवश्य ऐसा कोई कारण रहा होगा जो जीवके ध्यानमें नहीं आया है।
सत्पुरुषके योगसे जीवको सजीवन बोधकी प्राप्ति होती है। सत्पुरुषकी अपूर्व वाणीसे जीवको धर्मका अपूर्व माहात्म्य समझमें आता है और अपूर्व रुचि उत्पन्न होती है। जिस भावसे जीवका कल्याण होता है वैसे भाव जाग्रत करनेके लिये वैसा ही कल्याणरूप प्रबल निमित्त चाहिये और जीवकी वैसी योग्यता भी चाहिये। किन्तु जैसा कि आगे कहा गया है-सर्व कल्याणके साधनोंमें सत्संग ही सर्वोत्तम साधन है जी। परमकृपालु श्रीमद् राजचंद्र देवने लिखा है कि 'अनादिकालके परिभ्रमणमें अनंत बार शास्त्रश्रवण, अनंत बार विद्याभ्यास, अनंत बार जिनदीक्षा और अनंत बार आचार्यपना प्राप्त हुआ है। मात्र 'सत्' मिला नहीं, 'सत्' सुना नहीं और 'सत्'की श्रद्धा नहीं की;
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