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________________ पत्रावलि-१ १११ (४) समदृष्टि। (५) भूल जायें। (६) जडभरतवत्। (७) मृत्यु महोत्सव है। (८) समाधिमरण। (९) दुःख जाता है-धैर्य, समता, क्षमा। (१०) दया-आभारी। (११) भयंकर शत्रुको जीतनेका अवसर, समय-स्वभाव। (१२) मेरा नहीं है। जो आया है वह जाता है। वापस नहीं आयेगा। (१३) जो है उसका स्मरण-सहजात्मस्वरूप । (१४) एक है, दूसरा नहीं। (१५) अन्य नहीं है। (१६) जो है वह जाता नहीं। (१७) जैसा है वैसाका वैसा है। (१८) द्रष्टा है, जानता है, ऐसा ही है। १७५ तत् ॐ सत् अनन्य शरणके देनेवाले ऐसे श्री सदगुरुदेव शुद्ध चैतन्यस्वामी परमकृपालु श्रीमद् राजचंद्र प्रभुको अत्यंत भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार हो! नमस्कार हो! 'तारा दर्शनथी गुरुराज रे, सर्यां सर्यां मारा सहु काज रे; भम्यो अंध बनी भवमांहीं रे, काळ अनंत पाम्यो न कांई रे. १ तारा दर्शनथी जिनराज रे, टळ्यां मोहपडल मुज आज रे; वास्तविक वस्तुनुं स्वरूप रे, हतुं तेवू दीर्छ में अनुप रे. २ पवित्रात्मा सुज्ञ आर्य पूज्य भाई छोटालाल मलुकचंद शाहके प्रति विज्ञप्ति, मु. श्री वटवा, अहमदाबादके पास । श्री सनातन जैन धर्म तीर्थशिरोमणि श्रीमद् राजचंद्र आश्रमसे लिखानेवाले मुनिकुल लघुके जयसद्गुरुवंदनपूर्वक आशीर्वादके साथ सद्धर्मवृद्धि प्राप्त हो! १ अर्थ-हे गुरुराज! तेरे दर्शनसे मेरे सब कार्य परिपूर्ण सिद्ध हो गये। आज तक मैं अंध होकर संसारमें भटक रहा था और अनंत काल बीत जानेपर भी मुझे कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई। हे जिनराज! आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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