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उपदेशामृत
१७२ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.१३-११-३५ जो दुःख आता है वह जायेगा, जा रहा है। वह वापिस आनेवाला नहीं है। उससे घबरायें नहीं । जीवको मात्र सत्पुरुषके उपदेशकी कमी है, वह प्राप्त हो वैसी भावना वर्धमान करने योग्य है। सत्संगसे वह प्राप्त होती है, अतः सत्संगकी अभिलाषा रखते रहें।
बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, छः पदका पत्र, आत्मसिद्धि, स्मरणमंत्र आदि सुननेमें, चिंतन करनेमें विशेष काल व्यतीत करना योग्य है जी।
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नासिक, चैत्रसुदी ७, १९९२ "जब जाकौ जैसो उदै, सो सोहै तिहि थान;
शक्ति मरोरे जीवकी, उदै महा बलवान."-श्री बनारसीदासजी क्या कहा जाय! क्षेत्र स्पर्शनानुसार है, होता है। सद्गुरुकृपासे आत्माको जाना है और देह तो इसका, उसका, सबका क्षणभंगुर है। इस संबंधमें कल्पना करना व्यर्थ है। "क्षण क्षण भयंकर भावमरणे का अहो! राची रहो?"
"जे द्रष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप;
अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवस्वरूप." आत्मसिद्धिशास्त्र और छः पदके पत्रमें सब आ गया है।.....ने पूछा था कि गुरुगम क्या है? यह बहुत कुशल है पर गुरुगमकी प्राप्ति नहीं हुई। बहुत बातें कहनी हैं पर शक्ति नहीं है। जीवकी योग्यता चाहिये। गुरुगमके बारेमें बहुत सुननेकी आवश्यकता है। सारे दिन यह व्यवस्था और वह व्यवस्था करते रहनेमें क्या आत्महित है? आत्माकी चिंता करनी है। देहका जो होना हो वह होता रहे, भले कट जाय, भले छिद जाय, पर सद्गुरु द्वारा प्राप्त पकड़को छोड़ना नहीं है। मैंने आत्माको नहीं जाना, पर सद्गुरुने जाना है, यह श्रद्धा दृढ़ करने योग्य है, छोड़ने योग्य नहीं है। अरूपी आत्माको किस प्रकार देखा जा सकता है! 'सद्धा परम दुल्लहा।'
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तत् ॐ सत्
श्री सद्गुरु राजचंद्र प्रभुको त्रिकाल नमस्कार! (१) एक अक्षरसे समझमें आये वहाँ पाँच, पाँच अक्षरसे समझमें आये वहाँ पच्चीस, पच्चीस
अक्षरसे समझमें आये वहाँ पचास, पचास अक्षरसे समझमें आये वहाँ सौ न कहें।
संक्षेपसे समझमें आये वहाँ विस्तार न करें। (२) आत्माको देखें। पुद्गल भ्रम है। (३) पर्याय पर दृष्टि रखनेसे दोष दिखाई देते हैं, कषाय पुष्ट होते हैं। आत्माको देखनेसे
आत्मा पुष्ट होता है। आत्माको देखा तो आत्मा और परको देखा तो पर।
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