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________________ ११२ उपदेशामृत वि. हे प्रभु! आपका पत्र, भाई रामजी वेलजीके हस्ताक्षरोंमें लिखाया हुआ पत्र, सविस्तर पढ़कर संतोष हुआ है। हे प्रभु! आप महाभाग्यशाली है। कर्मोदयसे होनेवाले चित्र-विचित्र देहादि पर्यायको अपना मानकर अहंभाव-ममत्वभाव हुआ है। इस संसारमें वास्तविक भूल तो यही है। इससे परभावमें परिणत हो मोहासक्तिके वश संकल्प-विकल्प आदि द्वारा बंधन हुआ है, होता है। इसमें इस जीवने महापुण्ययोगसे मनुष्यभव प्राप्त किया है। उसमें भी मनुष्यभव तो बहुत बहुत हुए पर वे पशुवत् बीते हैं, उनमें मिथ्या जड़को चेतन मानकर रागद्वेषकर भवबंधन बढ़ाया है। उस भूलको यथातथ्य समझकर श्रीमद् श्री परमकृपालुके योगसे उनके बोधकी प्रतीति, रुचि, आस्था होनेपर, मेरी अल्प मति अनुसार कल्याण होगा ऐसा समझमें आता है जी। हे प्रभु! उस विषयमें आपको कुछ नहीं लिखता। हे प्रभु! आपका पत्र पढ़कर आपके जो पर्याय, भाव हैं वे मुझे बहुत अच्छे लगे हैं जी। आपकी योग्यता, भावनाको देखकर मैं आत्मभावनासे आत्मभावमें नमस्कार करता हूँ। आशीर्वादपूर्वक आपका कल्याण हो ऐसी इच्छा कर, आप भवपर्यंत अखंड जागृत रहें यही आशीर्वाद है। हे प्रभु! मेरी योग्यताकी कमीके कारण मैं आपको कुछ लिख नहीं सकता। क्योंकि परमकृपालु देव ज्ञानीकी आज्ञा है कि आपकी योग्यता वर्धमान हो वैसा करना चाहिये। जिस ज्ञानीने यथातथ्य क्षायिक प्राप्त किया है उसका वह अधिकार है। अतः हे प्रभु! उन सद्गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करते हुए-अखंड जीवन भवपर्यंत आज्ञामें रहनेसे-जीवको अवश्य समकित प्राप्त होता है। परभवमें वह साथ रहता है। अंतमें मोक्ष होने तक वह रहता है, ऐसा समझमें आया है। तो हे प्रभु! आपको तो वह जोग मिल गया है, अतः अब आपको उसी भावकी भावनासे समय व्यतीत करना चाहिये। मुझे तो ऐसा समझमें आता है। जैसे भी हो असंग अप्रतिबद्धताकी भावनासे, एक ही जागृतिकी भावनासे कल्याण है। बाकी तो पूर्वकृत उदय आता है वह मेरा नहीं है। यह विभाव परिणाम जड़ है। पुद्गलको मैं अपना नहीं मानूँगा। मेरा जो है वह तो ज्ञानीपुरुषने कहा है सो है। १७६ श्रीमद् सद्गुरु सहजात्मस्वरूप परमगुरु, नमस्कार हो! एक 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' यही स्मरण कर्तव्य है जी। उदयाधीन साता-असाता वेदनी कर्मबंधनसे छूटनेके समय जाती है। वहाँ उपयोग (आत्मा) देखनेकी भावना बारंबार विवेकसे विचारकर, चैतन्य जड़से भिन्न है ऐसा समझकर, ज्ञानचक्षुसे दिव्यचक्षुको विचारमें-ध्यानमें लाकर, आत्मानंद भावनासे भक्ति करनी चाहिये। "आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।" जीव लहे केवलज्ञान रे॥ तेरे दर्शनसे मेरे मोहपटल दूर हो गये और वास्तविक वस्तुका स्वरूप जैसा है वैसा अनुपम स्वरूप ही मुझे दिखायी दिया। ('दर्शन'का रहस्यार्थ सम्यग्दर्शन किया जा सकता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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