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________________ पत्रावलि-१ १०७ अपनी बुद्धिमें कुछ आया हो तो भी उससे पूछे। अपनी माताके साथ, उनकी मति अल्प हो तो भी क्षमा धारणकर उनके साथ मिलकर काम लेवें। कोई भी बात पूछकर करें। जैसे ठीक हो, अच्छा हो, वैसा व्यवहार करें। यथाशक्ति अपनी बुद्धिसे उन्हें समझायें। जिससे एकता रहे, उनको अच्छा लगे, वैसा करें। यद्यपि हमें कठिन लगे तो भी वचनसे उन्हें ऐसा कहें कि आप समझदार है। अवकाश मिले तो एक-दो दिनके लिये आपकी माताजीको या आपको यहाँ आ जाना योग्य है । कुछ आत्मार्थकी बात, सत्पुरुष कथित शिक्षा यहाँ सुनकर जायेंगे तो वह आपको इस भव और परभवमें हितकारी होगी। सुख-दुःख आवें उन्हें न गिनें । जैसा समय आया हो वैसा समतापूर्वक धैर्यसे सहन कर लें। आकुल-व्याकुल न हों, घबराये नहीं। सबको अच्छा लगे वैसे मधुरतासे बोलें। क्रोधसे, अकुलाकर न बोलें। यह बात ध्यानमें रखें। आपका बहुत भला होगा। काल सिर पर मँडरा रहा है। लिया या लेगा यों हो रहा है। गाँवमें किसीके साथ वैर न रखें। सबके साथ मिल-जुलकर रहें। किसीको क्रोध आया हो तो भी नम्र बनकर अपना काम निकाल लें। शत्रुता हो वैसा व्यवहार न करें। 'बापकी औरत' या 'माताजी' कहने में अंतर है, वैसे ही हमें उसे समझाकर काम लेना चाहिये। सबके साथ, छोटे बालकके साथ भी धैर्यसे समझाकर काम लेना चाहिये। संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। आपके भाईके प्रति भी उल्लासभाव हो, उसे अच्छा लगे वैसे पत्र लिखते रहें। क्रोध चढ़ा हो तो क्रोध उतर जाय, अपनेको कुछ अच्छी शिक्षा लिख भेजे ऐसा उसे लिखते रहें, पूछते भी रहें। १६५ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास आश्विन वदी २, १९९० हे प्रभु! यह क्षणभंगुर देह धोखा देनेवाली है। रोगको लेनेमें कोई समर्थ नहीं है। जीवको अकेले ही कर्म भोगने पड़ते हैं। पर समकितीकी बलिहारी है! उसे तो ज्यों अधिक दुःख आते हैं त्यों अधिक निर्जरा होती है। जिसके पास भेदविज्ञानका शस्त्र है उसकी अंतमें विजय होती है। यहाँ सर्व प्रकारकी बाह्य अनुकूलता होने पर भी वृद्धावस्थाकी वेदना लेनेमें कोई समर्थ नहीं है। कहीं चित्त नहीं लगता। चातुर्मास उतरने पर कहीं बाहर जानेकी वृत्ति हुआ करती है। पर शरीर कुछ सहन कर सके वैसा अब रहा नहीं है। आँखोंमें धुंधलापन आ गया है, कानका बहरापन बढ़ रहा है, बोलनेमें भी तुतलाहट आने लगी है। बोलते-बोलते थकान हो जाती है। गला बैठ गया हो यों भारी आवाज निकलती है। मौत बारबार याद आती है। कुछ भय नहीं है पर कहीं चित्त नहीं लगता, चैन नहीं पड़ता। सद्गुरुकी शरणपूर्वक समताकी भावनासे जो हो उसे देखते रहना, इसके सिवाय अन्य कोई उपाय दिखाई नहीं देता। वेदनीय कर्म, साता-असाता प्राणीमात्रको भोगना ही पड़ता है, इसमें किसीका कुछ वश नहीं चलता। सद्गुरुकी शरणसे यहाँ, जैसे बने वैसे समभावसे भोगा जा रहा है। हमारा तो ध्यान एकमात्र सद्गुरुके वचनमें है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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