SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૧૦૮ उपदेशामृत १६६ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.१०-११-३४ आपको क्या बतायें? परम पुरुष पर जितना विशेष प्रेमभाव, श्रद्धा, आश्रय, भक्तिभाव बढ़ेगा उतना ही स्वपर कल्याण होगा, यह तो आपके ध्यानमें है जी। आप बहुत निकट आ गये हैं अर्थात् योग्यतामें आये हैं। इतना पुण्य होने पर भी मनमेंसे उसे दूरकर ऊपर-ऊपरसे रखते हैं! स्व० जूठाभाई और आपका काम हुआ है। मार्ग पर चढ़नेके लिये परमपुरुषकी श्रद्धाकी आवश्यकता है। जिसे वह हुई उसका अवश्य मोक्ष होगा। अनेक भव्य जीवोंका कल्याण होनेवाला है। इसमें कुछ धन या पदकी आवश्यकता नहीं है, मात्र श्रद्धा करनेकी आवश्यकता है। जो ऐसा करेगा वह चाहे जैसा होगा तो भी उत्तम पदको प्राप्त करेगा। मैंने जाना नहीं है, परंतु मैंने माना है उस पुरुषने तो आत्माको जाना है, इतनी प्रतीति भी बहुत लाभदायक है। १६७ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.२९-११-३४ "होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एह." ज्ञानीको आस्रवमें भी मोक्ष होता है, कर्म छूटते हैं। मिथ्यादृष्टिको संवरमें भी बंध होता है, इसका क्या कारण है ? सम्यक्त्व। आपने समकित माँगा है, वह कृपालुदेवकी कृपासे आपको अवश्य प्राप्त होगा-निःशंक मानियेगा। जीव अनादिसे मिथ्यात्वमें है। प्रथम सीखें-मेरा कुछ नहीं, पुद्गल है वह चैतन्यशक्तिसे भिन्न है, भिन्न है, भिन्न है; आत्माकी शक्ति आत्मामें है। चैतन्य है वह अपना है, अन्य नहीं; जो ऐसा मानता है वह कर्मसे छूटता है। जो अपना नहीं है उसे अपना मानता है वह बँधता है। 'मेरा है, मैंने किया ऐसा कहनेवाला बँधता है। सब जो जड़ है, पुद्गल पर्याय है, वह कभी हमारा हुआ नहीं, होगा नहीं और हैं भी नहीं। उसे अपना न मानें । अपना तो आत्मा है। उसे ज्ञानीने जाना है, वह सिद्ध समान है यह निश्चित जानें। ज्ञानीने जिसे जाना है, वह आत्मा मुझे मान्य है-ज्ञानीके कहनेसे मुझे मान्य है। यही श्रद्धा करें। यही मेरी श्रद्धा हो । जितने संकल्प-विकल्प हैं वे सब मिथ्या हैं। आत्मा संकल्प-विकल्पसे रहित है, उस आत्माको मैं मानता हूँ। निश्चय नयसे राग, द्वेष, मोह आत्मा नहीं है। निश्चयनय ही मुझे मान्य है। यह सब स्वप्न है-परभावको स्वप्न समझना चाहिये। १६८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.३-२-३५ "संतचरण आश्रय विना, साधन काँ अनेक; पार न तेथी पामियो, ऊग्यो न अंश विवेक. सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय, सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy