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________________ पत्रावलि-१ १०५ सत्संग सबसे श्रेष्ठ है। परमकृपालुदेव पर श्रद्धा और उनके वचन पर यथार्थ विचार होनेसे समकित होता है। उसकी प्राप्ति बड़ी बात है, पर उसे प्राप्त करनेका प्रयास करें। साता-असाता बाँधी होगी वैसी भोगनी पड़ेगी, उसमें खेद न करें, सदैव उल्लासमें रहें। घबराकर उदास न हों। हिम्मत न हारें। समभाव रखकर सहन करें। नित्य बीस दोहें, क्षमापनाका पाठ, आलोचनाकी पुस्तक पढ़नेका योग बनायें। बीस दोहें, क्षमापनाका पाठ तो शाम या सुबह पढ़े। उसका फल अवश्य होगा। आत्माके लिये करें। अन्य कुछ इच्छा न करें। सुख-दुःख तो पूर्वबद्ध है। वह किसीको भी आये बिना नहीं रहेगा। समय बीत रहा है वह अमूल्य है। कुछ इच्छा न करें। होनहार होकर रहेगा। किसीको बहुत याद न करें, सब भूल जायें। जो दुःखके दिन आयें उन्हें समभावसे उल्लासपूर्वक भोग लेना चाहिये। १६१ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.१८-८-३४ प्रमाद और स्वच्छंद इस जीवका बुरा करते हैं। अतः जीवको सत्पुरुषका बोध सुनकर, पढ़कर, विचारकर मनको, वृत्तिको बहुत विकल्पमें अन्य परभावमें जाते रोककर, कामकाज करते, चलते-फिरते मन स्थिर कर 'सहजात्मस्वरूप' की भावना हृदयमें करनी चाहिये । क्षण-क्षण काम करते, चलते फिरते मनमें स्मरण करते रहना चाहिये। जितना हो सके उतना सत्पुरुषार्थ करें। घबरायें नहीं, आकुल-व्याकुल न हों। जैसे भी हो सके, सद्विचारमें मनको-वृत्तिको लायें। परमें जाते मनको रोकनेके लिये परमकृपालुदेवका कोई पत्र पढ़ें, चिंतन करें। __ सभी जीवात्मा प्रारब्ध प्रवृत्तिमें हैं। उसीमें सब दिन बीतते हैं, पर माहमें या पंद्रह दिनमें सभी मुमुक्षु एक स्थान पर एकत्रित हो सकें वैसा करना चाहिये । समय बीत रहा है, उसमें सत्संगके लिये एक दिनकी व्यवस्था कर लेंगे तो कुछ अड़चन नहीं आयेगी। सबकी रायसे एक दिन धर्ममें बिता सकें वैसा निश्चित करें। यह मनुष्यभव पुनः मिलना दुर्लभ है। एक शहरमें होनेसे ऐसी व्यवस्था करेंगे तो हो सकेगी। होनहार बदलता नहीं और बदलनेवाला होता नहीं, ऐसा सोचकर धर्मके काममें पुरुषार्थ कर्तव्य है जी। १६२ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.७-९-३४, गुरुवार सबके साथ मिल जुलकर विनयसे रहें। किसीका भी कुछ काम हो तो उमंगसे कर दें। सबको अच्छा लगे वैसा बोलें, मिलने जायें, कामकाज पूछे और बालकके समान सबसे छोटे बनकर नम्रतासे रहें। घबराये नहीं, उल्लास रखें। काममें कमी न आने दें और आलस्यमें, मौजशौकमें समय व्यर्थ न जाने दें। प्रतिदिन भक्तिके बीस दोहे तथा क्षमापनाका पाठ और हो सके तो आत्मसिद्धिका भी पाठ करें। नीति-न्यायपूर्वक अच्छा व्यवहार रखनेसे पुण्यबंध होगा और धर्मके काममें ध्यान रखनेसे आत्माका कल्याण होगा. अतः दोनोंमें सावधानी रखें धैर्य रखें। कोई कुछ भी कहे, उसे सहन करनेकी आदत डालें। उससे बहुत लाभ होता है। जिसका स्वभाव क्रोधी नहीं होता, उसके सब मित्र बन जाते हैं । विनय सबको वशमें करनेका उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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