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उपदेशामृत योग्य है। बहुत करके वीतराग मार्ग 'सम'का है। जैसी क्षेत्रस्पर्शना होती है वैसा होता रहता है। उसके द्रष्टा होकर रहें। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
श्रावण सुदी ४, मंगल, १९९७, ता.१४-८-३४ महापुरुषोंने आत्महितके लिये और जीवको पुण्यबंध हो ऐसा लक्ष्य होनेके लिये बताया है। मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है। इस मनुष्यभवको प्राप्तकर संसारमें इस प्रकार व्यवहार करें कि जिससे पुण्यबंध हो, देवगति हो और सत्पुरुष-सद्गुरुकी श्रद्धासे सम्यक्त्व प्राप्त हो। यह बात चूकने जैसी नहीं है। आत्माके लिये यही कर्तव्य है। आप तो समझदार हैं। अतः परमार्थके लिये स्वपरके हितका विचार करें। इसके लिये निम्न बातोंको ध्यानमें रखकर व्यवहार करें(१) झूठ नहीं बोलना । यद्यपि कई लोगोंको झूठकी आदत होती है तथापि सत्य बोलनेकी आदत
रखनी चाहिये। (२) रिश्वत नहीं लेना। (३) चोरी नहीं करना। (४) परस्त्रीका संग नहीं करना। (५) न्याय नीतिसे पैसा कमाना, उससे जो मिले उसमें संतोष रखना। (६) सबके साथ मैत्री भाव रखना। बड़े लोगोंसे, अच्छे समझदार लोगोंसे संबंध रखना। (७) हल्के लोगोंके साथ संबंध नहीं रखना। संसारमें पापबंध करावें, दुर्गति करावें, वैसोंका
परिचय नहीं रखना। (८) हमारा बुरा करे उसका भी हो सके तो भला करना, भला सोचना। किसीके साथ वैमनस्य
नहीं करना। (९) गंभीरतासे बड़ा पेट रखना। बुरी बात भूल जाना। (१०) 'परमारथमां पिंड ज गाळ' अर्थात् आत्माके लिये भावना करना। चलते-फिरते, काम करते
हुए भी मनमें 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु का स्मरण करना, अर्थात् क्षण-क्षण उस मंत्रको याद करना। यह भूलने योग्य नहीं है।
काल सिर पर मँडरा रहा है। प्राण लिये या ले लेगा यों हो रहा है। मनुष्यभव दुर्लभ है। यह मनमें, स्मृतिमें, चित्तमें रखना चाहिये । आप समझदार हैं । यह भावना अन्य किसीके लिये नहीं है, अपने लिये है। अच्छा न लगे तो भी 'मोक्षमाला' आदि पुस्तक पढ़नेमें मन लगायें। चित्त मन कहीं भटक रहा हो तो उसे वहाँसे लौटाकर किसी धर्मके कार्यमें लगायें। कुछ घबरायें नहीं । साहसपूर्वक मंत्रका स्मरण करते रहें। कामके समय काम और आरामके समय आराम । मनको, विचारको पुण्यबंध हो ऐसे अच्छे काममें लगायें। सबके साथ मैत्रीभाव रखें। एकता, शीलसे व्यवहार करें। किसीके साथ झगड़ा न करें। नींबूका पानी सबके साथ मिल जाता है, उसी प्रकार सबके साथ हिलमिलकर रहें, एक हो जायें।
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