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________________ पत्रावलि - १ ९७ सत्पुरुषकी शिक्षाको सुनकर विनयसहित प्रवृत्ति करनी चाहिये । जो न्याय - नीतिपूर्वक प्रवृत्ति करता है, उसकी संसारमें प्रशंसा होती है और वह धर्माराधन करने योग्य बनता है । किन्तु दुराचरणवाला कभी धर्मको प्राप्त नहीं कर सकता तथा संसारमें भी उसकी निंदा होती है और कुटुंबकी निंदाका भी कारण बनता है । कुटुंबके लोग चाहे जितने नासमझ हों तो भी समझदार व्यक्ति विनयसे उनके मनको जीत लेता है । स्वयं दुःख उठाकर भी सबके चित्तको संतोष हो ऐसे मधुर वचन द्वारा उनकी सेवा कर उन्हें प्रसन्न रखें तो वह सच्चा समझदार गिना जाता है । कुटुंबमें जो समझदार हो उसे सबका कहना सहन करना चाहिये । चाहे जितने कटु वचन कोई कह जाये तो भी मानो सुना ही नहीं, ऐसा मानकर भूल जाय और सबका भला कैसे हो ऐसे विचार रखकर सबकी सेवामें लग जाय । अपनी भूलसे किसीको बुरा लगा हो तो वैसी भूल दुबारा न होने दे और जिसे बुरा लगा हो उसे प्रसन्न करे। वे सब हमें राजी रखकर व्यवहार करते हों तो उससे हमें फूल नहीं जाना चाहिये, किंतु अपने जो दोष हों उन्हें दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये। सबकी प्रकृति एक समान नहीं होती, अतः समझदार व्यक्तिको सबकी प्रकृतिको जानकर कुटुंबमें क्लेश न हो वैसी प्रवृत्ति करनी चाहिये और क्लेशके जो कारण हों उन्हें दूर कर देना चाहिये, तभी समझदार गिना जायेगा । अपने दोषकी क्षमायाचना कर सबको अच्छा कहकर झगड़े शांत करे वही कुशल कहा जाता है । संसारके भोग सब दुःखके कारण हैं और जीभ शत्रु जैसी है, उसे वशमें करनेवाला सुखी होता है। जो सबसे विनम्र व्यवहार करता है उस पर सबकी प्रीति रहती है । 'नम्यो ते परमेश्वरने गम्यो' (नम्र व्यक्ति पर परमेश्वर भी प्रसन्न रहता है ।) ऐसी कहावत है । अतः बहुत नम्रता रखें और 'आप समझदार हैं, आप बड़े हैं, मैं तो बालक हूँ, मेरे दोषको न देखें। आप कहेंगे वैसे मैं करूँगा ।' ऐसा कहकर सबके साथ हिल-मिलकर रहनेसे पुण्य बढ़ता है और जीवका हित होता है। किसी पर द्वेष न रखें। दूसरेका बुरा चाहने पर अपना ही बुरा होता है । अतः सबको अच्छा लगे वैसा बोलें तथा व्यवहार करें । माया-कपट न रखें। सरल हृदयसे, सबका भला हो वैसा व्यवहार करनेसे अपना ही भला होता है । प्रारब्धानुसार जो सगे-संबंधी मिले हैं, उनमें संतोष रखें। यदि मन -दुःख रखेंगे और कुटुंबमें झगड़ा पैदा करेंगे तो झगड़ेसे लक्ष्मीका नाश होता है । अतः सबके साथ हिल-मिलकर प्रेमसे रहें । I १५२ (19 Jain Educatiornational हे प्रभु! संपूर्ण लोकमें स्वप्नवत् मायाका स्वरूप, पुद्गल पर्यायका व्यापार चल रहा है । है प्रभु ! पूरा लोक अभिनिवेश, मिथ्यात्व, अज्ञानसे 'मेरा मेरा' के आग्रह पूर्वक प्रवृत्ति कर रहा है और संसार - परिभ्रमण कर रहा है। जिस प्रकार रागद्वेष कम हों उस प्रकारसे वेदनीयकर्मके उदयको समभावसे भोगते हुए, आत्मासे आत्मिक वस्तुकी भावना करते हुए काल व्यतीत हो रहा है। जैसे भी हो परमें भाव कम होकर आत्मभाव हो वैसा भाव रहता है। परंतु कर्मके आगे जीव परवश है । हे प्रभु! आयुष्यका भरोसा नहीं है । प्राण लिये या ले लेगा यों हो रहा है । वृद्धावस्था है । वृद्धावस्थाके कारण शरीर नरम-गरम रहता है । अगास श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, प्र. वैशाख वदी ८, रवि, १९९० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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